ज़ॉम्बी
हर तरफ आवाज़ें हैं
आवाज़ें ही आवाज़ें
ये साल
बहुत बुरा रहने वाला है।
क्या लोग अब तक गूंगे थे
या हम ही बहरे?
16 दिसंबर या 21 दिसंबर
सिर्फ तारीखें नहीं
यह बात हमसे बेहतर कुछ लोग जानते हैं
और दुनिया अब भी बची है
तो सिर्फ इसलिए
कि नहीं खत्म हुई थी उस दिन
या किसी और दिन
नास्त्रेदमस की किताब में।
यूं रोज़ मरती है दुनिया
कई बार लुटती है मुनिया
नए साल की देहरी पर
छिटक जाते हैं सपनों के अक्षत
सरेराह
जब टन्न से गिरा अकबरी लोटा
सरहद पर वज़ू के काम आता है
और पहरेदार का डंडा
अपने सहस्र लिंगों से चीर जाता है
शर्म का कुहरा।
कुहरे से आती आवाज़ें
सरहद से आती आवाज़ें
इतनी आवाज़ें
कि आवाज़ों के लिए जगह नहीं बचती
सुनो! ये साल वाकई बुरा रहने वाला है।
यकीन मानो ये बात
ऐसे ही नहीं कह रहा मैं
मैंने गिद्ध की आंखों में देखा है प्यार।
वो सपना नहीं था
जब फेरी गई थी मुझ पर जादू की छड़ी
और मेरी देह पर मल कर भस्म
वे नाच रहे थे जलती आग के चारों ओर।
बेटियां उनके भी थीं
गिद्ध के तो तीन-तीन थीं
जिनसे मेरा ब्याह होना तय था
और मैंने कर दिया था इनकार।
वो रात
प्रणय की रात थी
जब गिद्ध की आंखों में उतर आया था प्यार
खून से ज्यादा गुलाबी
मगज से ज्यादा गाढ़ा
और
इंकलाब से भी सच्चा।
मेरी आत्मा का रसायन बेटियों के खून में मिलाकर
वे पीते जाते
और आवाज़ों के जंगल में
जाने कब उन्होंने मुझे ज़ॉम्बी बना छोड़ा
ठीक-ठीक याद नहीं।
तुम्हारी आवाज़ इतनी तेज़ क्यों है?
क्या तुमने भी अलाव जलाकर नाचना सीख लिया?
जंगल और शहर में कुछ तो फर्क हो
इतनी आवाज़ों ने मेरा मरना हराम कर दिया है
इन दिनों
आवाज़ों से डर लगता है
जाने कब शहर और जंगल आवाज़ बन जाएं
कह नहीं सकता
ये साल सच में
बहुत बुरा रहने वाला है।
तुम्हारा शक उतना ही पतला है
जितनी मेरी आवाज़
और क्या कहूं तुम्हारे बारे में
लेकिन आवाज़ों को ज़ॉम्बी बनते
मैंने देखा है।
वे तुम्हारे जानने वाले थे
और मेरे भी
हमारे ही जैसे इंसान थे वे
बोलते-बतियाते
हंसते-मुस्कराते
रोते-गरियाते
अपनी कविताओं में
एक दिन सब उठ कर शहर आ गए…
बस।
आवाज़ों के शहर में
वे बोलना सीख रहे थे
जीते-मरते
लिखते-पढ़ते
समय के साथ
भाषा की मुंडेर पर पहुंच चुके थे वे
कि छलांग से ऐन पहले
फंस गए गुलाबी आकाश में
जहां चील-कौवों की चांय-चांय
गिद्धों का सायरन बन जाती है।
यहां एक गलती, और बस…
वक्त की मुंडेर से नीचे-
काम तमाम।
उन्हें मरना नहीं था
मरना नहीं था उन्हें
इसलिए जीने की ख्वाहिश में
अपनी आत्मा का रस बेचकर
हुए वे गिद्धों के साझीदार
पढ़ा रहे हैं आजकल शुचिता का पाठ।
अपंग विश्वविद्यालय
के गूंगे विभागों में बांट रहे हैं
बेआवाज़ होने की डिग्रियां।
दोस्त!
हम सब जादूगर के चंगुल में हैं।
जब देह टोने में लिपटी हो
तो आवाज़ों से डर लगता है।
जब जंगल में खुलती है नींद
और शहर में मरता है होश
तो आवाज़ों पर शक होता है।
शक होता है
बग़ावत की उड़ती धूल पर
हर लाल फूल पर
शक होता है संदेश पर
उपदेश पर, आदेश पर।
मुझ पर तुम शक कर सकते हो, बेशक
गवाह है लुटी-पिटी आत्मा मेरी
कि कुछ भी हो सकता हूं मैं,
मनुष्य नहीं।
खड़ा हूं निर्वस्त्र
स्वयं सिद्ध।
कैसे कह दूं फिर यकीन से
कि ये आहट है सच्चे मनुष्य की
खालिस इंसानी
नकद, मीठा सोता
गिद्ध की आंखों से कोसों दूर
खारेपन से अछूता?
आवाज़ों का सैलाब
जो उठा है पर साल
खामोशियों की उसमें नहीं है जगह।
तुम देख लेना
ये साल
बहुत बुरा रहने वाला है।
तारीखों का हिसाब तुम पर छोड़ता हूं
मैं तो मदारी के वश में हूं
मंत्रबिद्ध।
मेरे विवेक के तहखाने में
हिलता है जो उम्मीद का हरा पानी
उसमें पुतलियां भिगो कर
मैंने जगने का इंतज़ाम कर लिया है।
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वाह…..क्या बात है….!!