रंग निर्देशक रणधीर कुमार |
राजेश चन्द्र ने बहुत गहरे आरोप मुझ पर बड़े ही विस्तार से लगाए हैं। मैंने अपने स्तर पर कुछ स्पष्टीकरण देने की कोशिश की थी लेकिन मुझे जरूरी लग रहा है कि मैं उतने ही विस्तार से अपनी बात रखूं, इसलिए रख रहा हूं। उम्मीद है सम्पादक लोग इसे भी जगह देंगे।
राजेश ने पहली ही पंक्ति में मुझे मूर्ख करार दिया है। अब मूर्खों की दोस्ती तो इस जहाँ में कोई लेता नहीं। कहावत भी है कि मूर्ख दोस्त से अच्छा होता है चालाक दुश्मन। पर वे मुझ जैसे मूर्ख से भी दोस्ती रखते हैं तो यह उनका बड़प्पन ही कहा जाएगा और मैं इस बात के लिए उनका आभार मानता हूं।
रही बात रानावि और उसके निदेशक के साथ मेरे संबंधों की तो उनसे मेरा नीतिगत मतभेद है। इस मतभेद के कारण मैंने बहुत परेशानियां भी उठाई हैं और बहुत कुछ झेला भी है, जिसकी शुरुआत उसी दोस्त शशिभूषण की मौत के बाद उपजे सवालों से हुई जिसका जिक्र राजेश ने किया है। अब मैं उनकी तरह चालाक नहीं हूं कि किसी व्यक्ति का एक मुद्दे पर विरोध करूं और दूसरे पर उसके साथ चिपका नज़र आऊं।
जहां तक जहाजी नाटक का सवाल है, इसके ग्रांट के लिए अप्लाई मैंने विस्थापन की समस्या पर एक कांसेप्ट नोट बनाकर किया था जिसे संस्कृति मंत्रालय ने ग्रांट दिया। तब यह तय भी नहीं था कि राजेश उसकी स्क्रिप्ट लिखेंगे। ग्रांट मिलने के बाद मैंने उनसे आग्रह किया और उन्होंने लिखना स्वीकार किया। उन्हें अगर इतनी प्रॉब्लम थी तो उन्हें स्क्रिप्ट लिखने से मना कर देना चाहिए था, लेकिन उन्होंने इसे लिखा। उस वक़्त जितना पैसा मैं अफोर्ड कर सकता था उतना मैंने उन्हें दिया भी। अगर उन्हें नामंजूर था तो वे तभी इनकार कर सकते थे, लेकिन तब वे चुप रहे। आज उन्हें लग रहा है कि उनका लिखा नाटक करके मैंने बहुत पैसे कमा लिए हैं सो वे यह सवाल उठा रहे हैं।
मैंने अब तक पटना से बाहर इसके तीन शो किए हैं। कुरुक्षेत्र, बेगुसराय और ओडिशा में। कुरुक्षेत्र वाले शो के 25,000 रुपए अभी तक नहीं आए। उसमें पटना से कुरुक्षेत्र आने–जाने और खाने-पीने का पूरा खर्च शामिल है। 12-14 लोगों की टीम को आप अगर लेकर चलते हैं तो आप ही बताइए उसमे क्या बचा पाएंगे। बेगुसराय के शो के 20,000 मिले जिसमें भी यह सब शामिल है। ओडिशा वाले शो का भी यही हाल है। पटना के शो मैंने अपने खर्चे पर किए हैं। अब आप खुद ही हिसाब लगा लीजिए कि इसमें से मैंने कितना कमा लिया होगा।
जहां तक इस नाटक को खेलकर राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हो जाने का सवाल है, पता नहीं उन्होंने कहां इसकी चर्चा सुन ली। वे खुद भी रंगकर्मी रहे हैं और एक नाटक की मैगज़ीन के संपादक भी हैं। उन्हें पता है कि भारत में जो सम्मानित महोत्सव हैं जैसे भारंगम, मेटा, नान्दिकर, इत्फोक या पृथ्वी आदि, कहीं भी इसका शो नहीं हुआ है जिससे आदमी चर्चित होता है। जहां भी इसके शो हुए हैं मेरे व्यक्तिगत प्रयासों से ही हुए हैं। ऐसे में पता नहीं कौन सी ख्याति या अवार्ड इस नाटक को और इसके जरिये मुझे मिला है, यह तो उन्हें ही पता होगा। अगर मुझे या नाटक को कोई सम्मान वगैरह उनकी जानकारी में मिला है तो जरूर बताएं, उससे मुझे भी ख़ुशी होगी।
इसी खबर पर है राजेश चन्द्र को आपत्ति |
जहां तक इस नाटक के लेखन से उनका नाम हटाने की बात है, यह पूर्णतः मिथ्या प्रचार है। जिस बेगुसराय महोत्सव में इसके शो के दौरान ऐसा किए जाने की बात वे कर रहे हैं उसके ब्रोशर में उनका नाम है। कई अख़बारों की कटिंग में भी उनका नाम आया है। किसी एक अख़बार वाले ने अगर गलती से या नासमझी से किसी और का नाम लिख दिया है तो उसके लिए मैं कैसे दोषी हो जाता हूं यह उन्हें बताना चाहिए।
जहां तक मेरे द्वारा खुद को इस नाटक का लेखक घोषित करने का सवाल है, मुझे इस बात का कोई भ्रम नहीं है कि मुझे लिखना आता है, इसलिए मैं हमेशा ही दूसरों से नाटक लिखवाता रहा हूं। और मुझे अपना ही नाम लेना होता तो उसमें सुनील बिहारी का नाम कैसे छपता। वैसे सुनील बिहारी के बारे में बता दूं कि वे कोई उभरते हुए अभिनेता नहीं हैं जैसा राजेश जी कह रहे हैं। सुनील पिछले 17-18 साल से नाटकों में काम कर रहे हैं और उभरने का फेज़ वे कब का ख़त्म कर चुके हैं।
वैसे राजेश ने इस लेख में मुझे जितना गिरा हुआ, नीच, घटिया, मक्कार, धोखेबाज़ करार दिया है, जाहिर है कि अखबार में छपी इस एक छोटी सी गलती से तो यह संभव नहीं है। इसका मतलब वे पहले से ही मुझे ऐसा मानते आ रहे होंगे। फिर भी वे मेरे जैसे आदमी के लिए लिखना स्वीकार करते हैं, यह भी मैं उनका बड़प्पन ही मानूंगा। इतना बड़प्पन तो कोई महान आदमी ही दिखा सकता है। और मैं उनकी इस महानता के लिए आभारी हूं।
वैसे यह उनका लिखा नाटक है और उनका ही रहेगा। वे इसे जिसे चाहे दे सकते हैं। मेरा काम नाटक करना है और वह मैं पिछले 15-17 साल से कर रहा हूं। वही मेरी रोजी–रोटी भी है और ज़िन्दगी भी।
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"जहाजी" नाटक के निर्देशक के रवैये को लेकर लिखे गए अपने पत्र पर रणधीर भाई के जवाब से लेकर अन्य कई साथियों की प्रतिक्रियाओं को जानने का अवसर अभी अभी मिला। माफ़ी चाहता हूँ कि घर पर सिस्टम न होने की वजह से उतनी त्वरित प्रतिक्रिया दे पाना मेरे लिए संभव नहीं। मुझे इतने से काम के लिए भी सायबर कैफ़े में आना पड़ता है करीब एक किलोमीटर दूर। मैंने पूरी बातचीत के प्रिंट आउट्स ले लिए हैं। कल इन पर अपनी बात रखूँगा। रणधीर भाई ने अपना जवाब तैयार करने में काफी मेहनत की है। उसे पढ़ कर किसी व्यक्ति के अन्दर उनके प्रति संवेदना जग रही है तो इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है। मेरे पहले पत्र के बाद कल से लेकर आज तक कई मित्रों ने मुझे फ़ोन करके जानना चाहा कि क्या मैंने इन बातों को सार्वजनिक करने में जल्दबाजी नहीं की है? मैंने बातचीत में भी उन मित्रों को बताया है और यहाँ भी बता रहा हूँ कि इस पत्र के सामने आने में पिछले 6 मार्च को रात 9.30 बजे के आस-पास रणधीर भाई से फ़ोन पर लगभग आधे घंटे तक हुई बातचीत की एक बड़ी भूमिका है। उस रात की बातचीत में उन्होंने जिस अहंकारी अंदाज़ में मुझसे बातचीत की, जिस तरह मुझे दो कौड़ी का लेखक बताया (उनकी बात सच थी पर अंदाज़ बहुत आपत्तिजनक था!), जिस धमकाने वाले अंदाज़ में उन्होंने मुझे सूचना दी कि वे इस नाटक को अब छपवाने जा रहे हैं (क्योंकि उन पर इसका बहुत दबाव है!) और आने वाले वक़्त में लोग किसी राजेश चन्द्र को नाटककार के रूप में इसलिए याद नहीं रखेंगे क्योंकि आज तक किसी भी प्रस्तुति में लोगों ने उन्हें देखा तक नहीं है, और यह भी कि अब उन्होंने खुद ही लोगों को यह बताना शुरू कर दिया है कि इस नाटक को हमने राजेश चन्द्र के एक लेख को आधार बना कर खुद तैयार किया है वगैरह वगैरह।
जब मैंने उनसे कहा कि मुझे नहीं लगता आप ऐसा कर सकते हैं तो उन्होंने हँसते हुए मुझे अपने फेसबुक वाल पर आने का न्योता दिया और कहा कि अब यह बात अखबारों में भी छप रही है जिसका एक नमूना आपके लिए उपलब्ध करा दिया है। उनकी बात में दम था और मुझे काफी हैरत हुई। मैंने उनसे उसी पुराने दोस्त की तरह पूछा कि रणधीर भाई आपने यह समीक्षा पढ़ी है, आपने इसे अपने वाल पर पोस्ट भी किया है, क्या आपको इसमें दी गयी गलत सूचना पर कोई आपत्ति नहीं दर्ज करानी चाहिए थी? उन्होंने कहा कि यह तो बस एक शुरुआत है और आप अभी से परेशान हो रहे हैं? मुझे इसमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगा। फिर उन्होंने ही मुझे यह भी बताया कि नाटक के प्रदर्शन के बाद प्रसिद्द अभिनेता यशपाल और नादिरा जी ने जब उनसे नाटककार का नाम पूछा और साथ ही यह भी क़ि वे प्रस्तुति में क्यों नहीं आये तो बकौल रणधीर भाई उन्हें बहुत तेज हंसी आ गयी। उन्होंने जवाब दिया कि नाटककार को यहाँ रहना चाहिए यह नाटककार की ज़िम्मेदारी थी इसमें मैं क्या कर सकता हूँ।
मैंने यहाँ उस रात की बातचीत के एक छोटे से हिस्से को ही रखा है। इस क्रम में आर्थिक मसलों पर जिस बेशर्मी के साथ उन्होंने मुझसे बातचीत की और कहा कि आप जितना डिजर्व करते हैं उससे ज्यादा आपको दिया जा चुका है- यह बात गहरे से गहरे मित्र की ज़बान से ही क्यों न निकली हो, सहनीय नहीं हो सकती थी। मेरे लिए तो नहीं ही। मैं हमेशा अपने प्रति उसी बर्ताव की उम्मीद रखता हूँ, जैसा मैं सामने वाले से करता हूँ। जब ऐसा नहीं होता तो मुझे बहुत तकलीफ होती है। खास कर एक ऐसे मामले में जहाँ सिर्फ मित्रता के कारण मैं अपने साथ लगातार किये जा रहे आर्थिक अन्याय को सहने की भरसक कोशिश करता आ रहा था। यह बात बहुत नयी नहीं है बस इनका बाहर आना एक नयी बात है। मैं एक रंगकर्मी के नाते जो महसूस करता रहा हूँ, एक रंग-समीक्षक के नाते जिन प्रश्नों को मैंने अक्सर उठाने की कोशिश की है, वह सारा अनुभव, वे सारे प्रश्न केवल दूसरों के लिए ही नहीं हैं। अगर वे मेरी अपनी ज़िन्दगी में कोई अर्थ नहीं रखते तो मेरे लिए निरर्थक हैं। यह बात सही है कि मैंने जो पत्र लिखा, उसकी भाषा अधिक संयत हो सकती थी अगर मैं उस रात की उस अकल्पनीय बातचीत के उद्वेलित कर देने वाले असर से मुक्त होकर लिख पाता। मुझे जानने वाले मित्र अच्छी तरह जानते हैं कि मेरा स्वभाव कैसा है और मैं अन्दर बाहर कैसा हूँ। अगर मुझे भी रंग बदलना आ जाता तो हुनर की वैसे बहुत कमी मेरे अन्दर भी कभी नहीं थी। कल भी मजदूर था और आज भी वही हूँ। इससे ऊपर उठने के लिए जिस अतिरिक्त कौशल की ज़रुरत पड़ती है सौभाग्य से उसका मेरे अन्दर विकास ही नहीं हो सका। इसीलिए तो जिधर सिर मुडाता हूँ ओले उसी तरफ पड़ने लगते हैं। आप सभी मित्रों को इस मसले पर अपनी-अपनी राय रखने के लिए ह्रदय से आभार।