असहमति पर पांच विचार



अभिषेक श्रीवास्‍तव 

1
असहमति-
एक ख़तरनाक बात थी
पिछले दौर में।
उन्‍होंने  
असहमति के पक्ष में
और
इसके दमन के विरुद्ध
ही अब तक की है
राजनीति।
वे असहमत हुए हैं
तो ख़तरे भी उठाए हैं उन्‍होंने।
वे, जो सनातन असहमत थे
आज भी हैं।
बस, ख़तरा टल चुका है।
अब सुरक्षित है असहमति की राजनीति
क्‍योंकि
सारे असहमत
हो चुके हैं सहज सहमत।

असहमति-
पहले से ज्‍यादा ख़तरनाक बात है
इस दौर में।
2
असहमत व्‍यक्ति
अकेला होता है
हर दौर में।
सहमति
मांगती है भीड़।
असहमतों की भीड़ जुट जाए तब?
असहमतों की सहमति से
असहमत होना,
अकेला होना है-
पहले से कहीं ज्‍यादा।
ऐसा अभी-अभी हुआ है। 
3
जो बोल रहे हैं
अकेले वे ही असहमत नहीं हैं
जो चुप है
असहमत हो सकता है वह भी।
असहमति
न आवाज़ है
न चुप्‍पी
एक तंग होती जाती जगह है
जिसमें अंटना
कट जाना है और जगहों से
कट जाना
उन सभी जगहों से
जहां असहमत होने की गुंजाइश
कल तक थी
सबके लिए।
4
मैं असहमत हूं
और चुप हूं
क्‍या आप मुझे सुन पा रहे हैं?
नहीं सुना जाना
सबसे बड़ा दुख है
दुख
दिखाई नहीं देता
चुप आदमी
सुनाई नहीं देता
असहमत होना
और कुछ न होना
तकरीबन एक बात है।
तकरीबन क्‍यों
एक ही बात है।
5
असहमत मैं भी हूं
असहमत तुम भी।
तुम उनसे असहमत हो
मैं तुम दोनों से।
तुम्‍हारी असहमति की रक्षा के लिए
लड़ूंगा मैं उनसे
मेरी असहमति की रक्षा के लिए
क्‍या तुम लड़ोगे खुद से?
तुम्‍हारे लोकतंत्र में
वॉल्‍टेयर के लिए जगह है क्‍या?

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One Comment on “असहमति पर पांच विचार”

  1. सर आपकी असहमति ने तो दिमाग के तार हिला दिए बहुत कोशिश का करके पढ़ा आपकी असहमति से सहमत होने के लिए। बहुत ही उम्दा लेख सर…

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