बजट 2021 जारी हो चुका है. कोरोना से त्रस्त जनता को उम्मीद थी कि मोदी सरकार के कहने पर ताली और थाली और घर की बिजली बंद कर दिया जलाने और बजाने का कुछ इनाम अब मिलेगा. आप जानते हैं समय-समय पर सरकार आपसे ये सब काम क्यों करवाती है? सरकार जानना चाहती है कि आप उनके विचारों से कितना सहमत हैं!
सरकार द्वारा लिए गए निर्णय से आप का कितना सरोकार है, सरकार के बिछाये गए विसात वो चाहे किसी को धमकाने का हो, किसी राज्य की जनता को बिना वजह सालों घर में बंद करने, उनसे संचार-संवाद के साधन जैसे इंटरनेट, अख़बार आदि छीनने, कानून के नाम पर उनकी नागरिकता खत्म करने, देश के प्रति वफ़ादारी और उनके फरमान न मानने पर नागरिकों को बेवजह जेलों में बंद करने और सालों न्याय की वाट जोहती जनता से आप को फर्क नहीं पड़ता. आप केवल सरकार की फरमान मानने के लिए हैं. इसे कई लोग गुलामी भी कहते है.
फिर सरकार को ये भरोसा हो जाता है कि वो आप के साथ या किसी अन्य के साथ गैर इंसानी सुलूक भी करती है तो आपको उससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा और आप सरकार या पार्टी का झंडा उठाये हुए, झूठे गुमान में घूम रहे होंगे, हिंसक बन रहे होंगे और अब इसी भरोसे का फायदा सरकार आपको अपने बजट और दूसरी नीति निर्धारण में दिखाएगी.
जब वित्त मंत्री ने बजट का पिटारा खोला तो गरीब और मध्यम वर्ग के चेहरे पर मायूसी छा गई. सरकार ने ‘स्वच्छ भारत अभियान’ के बजट से 45 फीसदी से ज्यादा कटौती कर ली है. किसानों को एमएसपी दिलाने वाली दो प्रमुख योजनाओं का बजट काट लिया गया है. शिक्षा बजट में 6 हजार करोड़ की कटौती की हैं. महिलाओं के पुर्नवास की योजनाओं, समेकित बाल विकास योजनाओं, मनरेगा, मैला ढोने वालों के पुनर्वास फंड में कमी और इस तरह की सभी जमीनी योजनाओं से पैसा काटा गया है. कटौती कुछ ऐसी हुई है कि जैसे अब ये सारी योजनाएं नगण्य हो गईं हो.
सरकार इन क्षेत्रों को निजी हाथों में सौंपने की योजना बना रही है. किसान, छात्र, बेरोजगार युवा, महिलाएं… इनके निर्धारित क्षेत्रों में निजी दखल होगा. कटौती का पैसा सरकार ने कोविड टीकाकरण में लगाया है, जबकि यह पहले ही साफ किया जा चुका है कि टीका अनिवार्य नहीं है, बल्कि आपात स्थिति में इस्तेमाल किया जाना है. बाकी और पैसा लगा है उन राज्यों की परियोजनाओं में जहां कुछ महीनों बाद चुनाव होना है.
जैसे तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, असम और केरल राज्य में राजमार्ग, एक्सप्रेस वे, कॉरिडोर से लेकर टेक्सटाइल पार्क जैसी विशेष घोषणाएं की गई हैं. यानी अन्य राज्यों में जनता को रोजमर्रा की जिंदगी में आ रही चुनौती से सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता , वह केवल योजनाओं के भरोसे चुनाव जीतना चाहती है. याद हैं न पहले कह चुके है कि सरकार आपकी परीक्षा ले चुकी है कि आप उनके हर एक फैसले के साथ हैं. इसलिए अब वह यह मान कर चल रही है कि उसके किसी भी जनविरोधी नीति का फर्क आप पर पड़ने वाला नहीं है. खुले शब्दों में सरकार पर ना तो किसान आंदोलन का असर है, ना ही बेरोजगारों के प्रदर्शन का. इसलिए बजट का सारा फोकस निजीकरण और चुनावी राज्यों पर है.
अब 130 करोड़ की आबादी वाले देश में कुछ लोग अपनी राय रखने में सक्षम हुए जो सरकार की राय से इत्तेफाक नहीं रखते और खुल कर बेवाकी से अपनी राय रखते नज़र आए हैं. सोचा आप के साथ भी उनकी राय साझा की जाए. मोबाइलवाणीपर देश के अंतिम गांवों से भी लोग अपनी प्रतिक्रियाएं रिकॉर्ड करवा रहे हैं. बजट जारी होने के बाद से अब तक 100 से ज्यादा लोगों ने अपना पक्ष रखा है और उनमें से 99 प्रतिशत लोग सरकार की बजट योजना पर हैरानी जता रहे हैं. कुछ तो साफ अल्फाज़ में कहते हैं कि ये इसे आम बजट क्यों कहते हैं, औद्योगिक घराना स्पेशल कह देना चाहिए!
आइये सुनते हैं क्या कहती है देश की आम और गरीब जनता!
किसानों का संघर्ष जारी रहेगा
मुंगेर सदर प्रखंड से किसान संजय यादव ने मोबाइलवाणी पर अपनी राय साझा की. संजय कहते हैं कि उम्मीद थी कि किसान आंदोलन का असर बजट पर होगा. सरकार कम से कम किसानों को खुश करने के लिए ही सही पर उनके भले के लिए कोई कदम उठाएगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. उल्टा किसान सम्मान निधि कम कर दी पर ये नहीं बताया कि ऐसा क्यों? क्या जरूरतमंद किसान कम हो गए हैं या फिर सरकार अब किसानों पर खर्च नहीं करना चाहती? बजट में एमएसपी के मूल्यों में वृद्धि की बात कही है, पर जब किसान इसी एमएसपी पर कानून बनाने की बात कर रहे हैं, उसे अनिवार्य करवाना चाहते हैं तो सरकार उसके लिए राजी नहीं. ऐसे में क्या वाकई इस मूल्य वृद्धि का असर किसानों पर होगा?
एक और सवाल है, सरकार ने एमएसपी पर कोई बात नहीं की है. लेकिन कहा है कि वे कृषि ऋण को सशक्त करेंगे. खेती किसानी आदि कार्यों के लिए किसानों को मिलने वाले ऋण की मात्रा को बढ़ाया गया है. वित्त मंत्री ने वित्त वर्ष 2022 में कृषि ऋण बढ़ाकर 16.5 लाख करोड़ रुपये करने का लक्ष्य रखा है. जिससे किसानों को पशु पालन, डेयरी और मत्स्य पालन के लिए किसानों को आसानी से ऋण मिल सकेगा. खैर इसके साथ ही आपको ये भी जान लेना चाहिए कि इस साल किसानों के फसल बीमा दावों को ख़ारिज करने के मामलों में 900 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई है. यानि सरकार किसानों को फसल का बीमा देने से कतरा रही है. यानी कि आपको सरकार लोन तो दे सकती है जिसका ससमय भुगतान करना ही पड़ेगा अन्यथा सरकार के पास योजना होगी कि जो किसान कृषि ऋण समय से नहीं देगा उसकी जमीन की नीलामी होगी और निजी कंपनी को सौंपी जाएगी. कंपनी तो बैठी ही है खेती में अपनी किसमत आजमाने को.
ऐसे में क्या आपको लगता है कि ऋण मिलना आसान होगा और आप समय पर ऋण का भुक्तान कर पाएंगे? अगर ऋण देने के बजाए सरकार एमएसपी पर कोई ठोस कदम उठाती तो शायद गाजीपुर बॉर्डर पर बैठे किसान भी खुश होते और बिहार के छोटे से गांव में बैठा छोटा किसान भी.
नावाडीह से इमरान अंसारी कहते हैं कि किसानों को मंडियां मिलनी चाहिए थीं, उनके लिए बाजार बनने थे, ताकि फसले आसानी से बिके. अगर किसानों को फायदा होता तो महंगाई पर अपने आप लगाम लग जाती. लेकिन किसान तो अपने हक के लिए धरने पर ही बैठे रह गए और केन्द्र सरकार ने बजट का एलान कर दिया. दुख की बात है कि यह बजट ना तो किसानों को खुश कर पाया ना बेरोजगार युवाओं को. सरकार जो सपने दिखा रही है उन तक पहुंचने का रास्ता मध्यम वर्ग के लिए बहुत मुश्किल है.
विरानो से अजय कुमार यादव कहते हैं कि किसान सम्मान निधि का बजट घटा दिया गया है. एक तो पहले ही राशि कम थी अब शायद और कम हो जाए. अगर राशि कम नहीं हुई तो जरूरतमंद किसानों की संख्या कम हो जाएगी. इस योजना को लेकर किसान पहले ही असमंजस में थे, क्योंकि जिनके पास खेत हैं उन्हें योजना का लाभ नहीं दिया जा रहा था. अब डर है कि और किसानों पर भी गाज गिर सकती है, और उनके पास पहले से मिल रहे रकम की आदएगी का फरमान जारी हो जायेगा, बहाना होगा आप तो आय कर अदा करते हो, अपने गलत तरीके से अपनी मालिकाना हक साबित किया है.
परिवार अलग होगा लेकिन लाभ किसी एक को ही मिलेगा, पहले से ही बटाईदार और ठेके पर किसानी कर रहे किसान को इस योजना का लाभ नहीं मिल रहा है और ना ही उन्हें शामिल करने की ऐसी कोई योजना नज़र आ रही है.
क्या बेरोजगार नहीं दिख रहे?
देश में बेरोजगारी की समस्या कब नहीं थी? सरकार चाहे जो भी रही हो मसले लगभग एक जैसे ही रहे. कोरोना काल के बाद बेरोजगारी की समस्या ने और विकराल रूप धारण कर लिया है. कोविड काल के दौरान सरकार कह रही थी कि मजदूरों को अब गांव से बाहर नहीं जाना होगा, उन्हें उनके घर में काम दिया जाएगा. पर जब बजट आया तो मनरेगा के फंड में सबसे पहले कटौती की गई. मनरेगा के लिए वित्त वर्ष 2019-2020 के संशोधित बजट आवंटन से वित्त वर्ष 2021-2022 में करीब 38500 रुपये कम दिया गया है. अभी तक कुल श्रम दिवस 3.4 अरब तक पहुंच चुका है, सरकार ने अगले वर्ष तक 2.7 से लेकर 2.8 अरब श्रम दिवस तक पैदा करने का लक्ष्य रखा है. यह न सिर्फ रोजगार के दायरे को कम करेगा बल्कि इसका परिणाम आने वाले वर्षों में श्रम के भुगतान में भी कम हो सकता है और ढांचा गत निर्माण पर खर्च होने वाली राशी को कम करना ही सरकार दूसरा उपाय होगा.
यानी आत्मनिर्भर भारत में अब लोग बकरी पालन,गाय पालन और मछली पालन के लिए मिलने वाले सहयोग यानि पोखर की खुदाई, बकरी गृह, गाय गृह के लिए सरकार के पास कम धन होगा. किसान अब इसका खर्च खुद उठाये ऐसा सरकार मान के चल रही है. क्योकि अब तो भारत का किसान बहुत आमिर हो चुका है. वैसे आपको ये भी जानना चाहिए कि बिहार के किसान 4-5 हज़ार रूपये और पंजाब के औसत किसान की आय 8-9 हज़ार है. अब आप खुद ही सोचिये कि आप कितना आत्म निर्भर बनेंगे.
रामगढ से डॉक्टर आशीष कहते हैं कि जो मध्यम वर्ग है वो तो किसी तरह जीवन चला लेगा पर कोरोना काल में जो गरीब परिवार सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं, उनके साथ बजट में कोई न्याय नहीं हुआ. मनरेगा के बजट में कटौती की गई है. जाहिर सी बात है कि इससे रोजगार दिवस प्रभावित होंगे. गांव में पहले ही मनरेगा के तहत बहुत कम काम हो रहे हैं, अब शायद और भी कम हो जाएं. बिहार जैसे राज्य में मजदूरों के पास पलायन के अलावा कोई विकल्प है कहां? सरकार ने तो पहले कहा था कि मजदूरों को उनके गांव में ही काम दिया जाएगा, लेकिन यहां तो मनरेगा में कटौती कर दी गई.
सरकार मौजूदा ग्रामीण रोजगार संकट को दरकिनार कर रही है, जबकि ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार की मांग को देखते हुए मनरेगा के खर्च को बढ़ाया जाना चाहिए था.
जानकारों के मुताबिक कोविड-19 के समय से भारी मांग के बीच 73,000 करोड़ रुपये का बजट में प्रावधान काफी कम है. बीते वर्ष सरकार ने 111,500 करोड़ रुपये खर्च किए थे. उस वक्त बड़ी संख्या में असंगठित मजदूर अपने गांवों में वापस लौटे थे और मनरेगा में काम की ऐसी मांग पहले कभी नहीं देखी गई थी.
बजट का प्रावधान सरकार के वास्तविक खर्च को प्रभावित नहीं करता है. यह मांग आधारित योजना है और सरकार ने 100 दिन रोजगार का कानूनी प्रावधान कर रखा है. यदि मांग बढ़ती है तो बजट में खर्च बढ़ाया जा सकता है. खैर ऐसा हुआ नहीं.
शिक्षा की जरूरत खत्म हो गई?
गरीब और मध्यम वर्ग की जरूरत वाली योजनाओं में जब कटौती की तैयारी की जा रही थी, तब सरकार को यह जरा भी ख्याल नहीं आया कि शिक्षा तो हर वर्ग के लिए जरूरी है. आम बजट में में शिक्षा को 93,224.31 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं, जो पिछले साल के बजट से छह हजार करोड़ रुपये कम है. जबकि कोविड काल के बाद जरूरत पहले से ज्यादा की थी.
परसौना से कुमार रवि रौशन कहते हैं कि बजट में गरीब और मध्यम वर्ग का ध्यान रखा जाना चाहिए लेकिन सरकार ने जिन योजनाओं पर खर्च किया है वो तो हमारे लिए हैं ही नहीं. शिक्षा पर खर्च होना था ताकि बच्चों को फायदा हो पर ऐसा नहीं हुआ. शिक्षा के बजट में तो पहले से ज्यादा कटौती हो गई.
मोबाइल फोन जैसी चीजों की कीमतें बढ़ा दी हैं. जबकि कोरोना काल के बाद तो वर्चुअल क्लास की डिमांड ज्यादा है, इसलिए हर बच्चे को फोन चाहिए. स्कूली शिक्षा के बजट में सबसे अधिक करीब पांच हजार करोड़ रुपये की कटौती की गई है. स्कूली शिक्षा विभाग को 54,873 करोड़ रुपये प्राप्त हुए हैं, जो पिछले बजट में 59,845 करोड़ रुपये थे.
यह 4,971 करोड़ रुपये की कमी को दर्शाता है. लड़कियों के लिए माध्यमिक शिक्षा की राष्ट्रीय प्रोत्साहन योजना के लिए आवंटन महज एक करोड़ रुपये किया गया है जो चालू वित्त वर्ष में 110 करोड़ रुपये था. जाहिर सी बात है कि इससे बेटियों की शिक्षा प्रभावित होने वाली है.
कोविड काल के बाद पहले ही इस बात की आशंका जताई जा रही है कि देश में महिलाओं की स्थिति हर क्षेत्र में खराब हो रही है. चाहे वे घरेलू हिंसा के मामले हों या फिर बाल विवाह की घटनाएं. मानव तस्करी जैसे मामलों में भी अब पहले से ज्यादा इजाफा हो रहा है. इसके बाद भी महिला पुर्नवास केन्द्रों का बजट कम करना और बेटियों के शिक्षा का पैसा दूसरी योजनाओं में लगाने का तर्क समझ नहीं आ रहा है.
ताजपुर बांगरा के निवासी रंजीत मोबाइलवाणी पर बताते हैं कि उन्हें वर्चुअल क्लास लेने में बहुत दिक्कतें आ रही थीं. कोरोना काल में शिक्षा का बहुत नुकसान हुआ. केवल वही नहीं बल्कि गांव के और भी बच्चे, जिनके पास मोबाइल फोन, लैपटॉप नहीं थे वो शिक्षा से वंचित रह गए. अब सरकार ने बजट में इलेक्ट्रानिक आइटम महंगे करने की बात कही है. सोचिए जब अभी मोबाइल नहीं खरीद पाए तो आगे क्या करेंगे? इससे तो अच्छा होता कि सरकार कोविड काल से सीख लेकर ग्रामीण शिक्षा को एडवांस बनाने पर ध्यान देती.
हवेली खडगपुर से छात्र राजकुमार कहते हैं कि हम इंतजार कर रहे थे कि सरकार छात्रों के लिए कुछ अच्छा करेगी, कम से कम कोरोना काल के बाद तो इसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी. लेकिन यहां तो शिक्षा का बजट ही कम कर दिया. ऐसा लग रहा है कि सरकार के लिए छात्र कोई मायने ही नहीं रखते जबकि यही छात्र आगे चलकर सरकार बनाने में योगदान देंगे.
खड़गपुर के प्रमुख शिक्षण संस्थान के डायरेक्टर संजय कुमार कहते हैं कि कोविड काल में स्कूल और कॉलेजों के साथ छात्रों को बहुत नुकसान हुआ है. हमें इंतजार था कि ग्रामीण मार्ग दुरूस्त होंगे, छात्रों का आवागमन आसान बनेगा, सरकार ट्रांसपोर्ट के क्षेत्र में कुछ करेगी पर ऐसा तो कुछ होता दिख नहीं रहा. अगर गांव का बच्चा शिक्षण संस्थान तक पहुंच ही नहीं पाएगा तो लाभ कहां होगा?
शिक्षा और किसानी निजी होने की राह पर काफी आगे निकल गए हैं. साफ है कि निजीकरण करने वाले हमारे देश के महान औद्योगिक घराने हैं और इनके अंदर काम करना यानि खुद को स्वयंसिद्ध मजदूर बना लेने जैसा है.
सारण जिले से एक श्रोता अपनी बात में साफ कहते हैं कि यह बजट केवल उद्योगपतियों के लिए है. पता नहीं क्यों सरकार इसे आम बजट कह रही है? क्योंकि आम आदमी की जरूरत की किसी चीज में उसे फायदा नहीं दिख रहा है. फल—सब्जी के दाम बाजार में आसमान छू रहे हैं और किसानों को कुछ नहीं मिलता. जो अनाज किसानों से 10 रूपये खरीदा जाता है वही किसान जब खरीदने जाता है तो उसे 40 रूपये किलो खरीदना पड़ता है, अब तो नया क़ानून भी आ गया है किसानों से असीमित मात्रा में फल, सब्जी खरीदो, अपने गोदाम और कोल्ड स्टोरेज में रखो, फिर जब बाजार में दाम आसमान छू रही हो तो उसे निकालो और खूब मुनाफा कमाओ, हम ऐसा इसलिए कह रहे हैं कि हमने देखा है, हमारी आप बीती है. बाकि तो सरकार तो राजा है, हम प्रजा सरकार का क्या ही बिगाड़ सकते हैं.