बात बोलेगी: ‘अपहृत गणराज्‍य’ की मुक्ति की सम्‍भावनाओं का उत्‍तरायण!


जब अपने वक़्त को ठीक-ठीक समझने में और समझने से ज़्यादा व्यक्त करने में कठिनाई आ रही हो तो दरवेश, सूफी, संत, शायर, कवि और दानिशमंद काम आते हैं। बीते सात दिनों में जिस तेज़ी से वक़्त ने झाँकियाँ बदली हैं उसे कह पाना बेहद कठिन हो रहा है। किस तरफ देखें? किसे अपनी डायरी में नोट करें? किस घटना को सोशल मीडिया पर साझा करें? किसके बारे में दोस्तों से चर्चा करें?  किस मामले में किसे पढ़ें? किसे सुनें ? और सबसे बड़ा सवाल किसकी मानें? यह सब क्या हो रहा है? किसकी शाह पर हो रहा है? कौन करवा रहा है? क्यों करवा रहा है? सवालों की फेहरिस्त इतनी लंबी और दिन में केवल चौबीस घंटे? अब सूरज ने भी उत्तरायण ले लिया है। क्या वक़्त अब अनुत्‍तरित सवालों के उत्तरों का आ गया है?

जब उत्तर या जवाब देने का जिम्मा वो न लें जिन्हें लेना चाहिए तब कहते हैं कि वक़्त खुद अदालत में आकर अपनी गवाही देता है। इस कहे जाने पर यकीन करने का मन होने लगा है। यह आसान सा रास्ता किसी ऊंची पहाड़ी से लौटकर आती अपनी ही आवाज़ के सहारे उत्तर पाने का ढांढस-सा देता है। वक़्त से बड़ा साहसी और उसके बराबर ईमानदार शायद कोई और शै नहीं है। लगता है जैसे इक्कीसवीं सदी के पहले महीने में वक़्त उत्तर देने को आतुर हुआ है। उसने तय कर लिया है कि 2020 तक 73 साल एक लोकतंत्र के तमाम अनुत्तरित सवालों के जवाब अब वह देगा।

यह औचक तो नहीं है कि किसान आंदोलन में पैदा हुए सवाल मौजूदा सरकार के साथ-साथ उसके साथ बीते सत्तर साल में हुई नाइंसाफ़ियों के जवाब भी तलाश रहे हैं। औचक तो यह भी नहीं है कि मौजूदा सरकार और उसके कारिंदों ने सात साल के अपने निज़ाम में केवल बीत चुके सालों में सत्तासीन रहे लोगों से सवाल पूछे हैं? यह भी अकस्मात नहीं है कि मौजूदा निज़ाम किसी भी सवाल का जवाब नहीं देता? इसमें भी क्यों आश्चर्य कि खुद को देश का सबसे मजबूत प्रधानमंत्री बताने वाला एक व्यक्ति अपने पूरे कार्यकाल में महज़ औपचारिकता के लिए भी एक प्रेस वार्ता न कर सका? हर सूचना को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बताते हुए छिपाए जाने का जो तिलस्म रचा गया वो भी सवालों की शक्ल में यहाँ-वहाँ भटक रही हैं? उत्तर देने के लिए उत्तरदायी लोगों, संस्थाओं ने उत्तर देने से जब मना कर दिया तो लगता है खुद समय इस ज़िम्मेदारी को निभाने आगे आ गया हो।

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समय को बलवान इसलिए कहते हैं कि क्योंकि उससे ज़्यादा धैर्यवान कोई नहीं होता। अब उसका भी धैर्य जैसे चुक रहा है। लीजिए, हाजिर है समय। मैं समय हूँ, कहते हुए। मुझसे कोई कुछ नहीं छिपा सकता। सारे राज़ यहीं कैद हैं, सारी जिज्ञासाएं यहीं आकर अपने हल पाएंगी। बचपन से सुनते आ रहे तुलसी के इस दोहे ने उसी प्रतिध्वनि का काम किया है जो पहाड़ों से लौटकर आते जवाब की तरह ढांढस देती है।   

तुलसीदास नीति के कवि भी हैं। अहंकार को बहुत बुरा मानते हैं। समय को बहुत बलवान। अर्जुन के बहाने से इस बात को समझाने की कोशिश करते हैं और कृष्ण के घायल हो जाने की कल्पना, जिन्हें देखने और हालचाल लेने अर्जुन उनके पास जाते हैं लेकिन शाप से ग्रसित कृष्ण के ज़ख़्मों को अपने तीर कमान से स्पर्श कर लेते हैं। वे कृष्ण को नुकसान पहुँचाने वाले उनके शत्रुओं का संहार करने का संकल्प लेना चाहते हैं लेकिन कृष्ण ऐसा करने से रोक देते हैं। एक आग्रह वे ज़रूर करते हैं कि उनसे मिलने उनकी गोपियाँ आ रहीं हैं लेकिन उन्हें डर है कि शत्रु उन्हें रास्ते में नुकसान पहुंचा सकते हैं इसलिए पार्थ, अगर कुछ कर ही सकते हो तो गोपियों को सकुशल महल तक ले आओ।

अर्जुन के लिए यह बाएं हाथ का काम था, लेकिन जब गोपियों को शत्रु घेर लेते हैं तब अर्जुन का कोई बाण काम नहीं आता। वो अपनी विद्या भूल चुका होता है। गोपियों के शत्रुओं की कल्पना भीलों के तौर पर की गयी और ठीक ही की गयी क्योंकि तुलसी के वर्णाश्रम में आदिवासी महज़ नुकसान पहुंचाने वाले आधे जानवर ही रहे हैं। इस प्रसंग से जो महत्वपूर्ण सीख मिलती है वो है इस दोहे की अर्धाली के अंतिम कुछ शब्द – वही अर्जुन, वही बाण।

जिन बाणों से अर्जुन ने महाभारत का रुख मोड़ा था आज वही बाण किस तरह निस्तेज हुए जा रहे। चूंकि समय उत्तरायण हो गया। अर्जुन भी इस पराजय को यही मानते हुए ज़ब्त करता है कि मेरी विद्या तब चल गयी क्योंकि तब समय मेरे साथ था।  

इस दोहे पर कई वजहों से यकीन किया जाता रहा है, लेकिन बीते सप्ताह के घटनाक्रम ने जैसे इसे अतिसामयिक अर्थ दे दिये हैं। जिन संस्थाओं और संस्थानों का इस्तेमाल कॉर्पोरेटजनित, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पोषित और भारतीय मीडिया द्वारा पल्लवित, मुसलमान और पाकिस्तान के खिलाफ नफरत के खाद से पली-बढ़ी, बहुसंख्यक आबादी की धर्म पिपासा से सिंचित, और अंतत: राष्ट्रवाद के उन्माद के बगीचे में पुष्पित हुई ये सरकार अब निस्तेज होने की तरफ तेजी से बढ़ रही है।

अपने रचे खेल में खुद में उलझती यह सरकार अब ऐसे गर्त में जा चुकी है जहां से उसका साबुत निकलना कतई संभव नहीं है। यकीनन ढलान यहां से शुरू होती है। इसे अतिउत्साह कहे जाने का डर है लेकिन यह जोखिम इसलिए लिया जा सकता है क्योंकि कई बार जोखिम लेने से भी सुकून मिलता है। अपनी राहत के लिए क्या इतना भी नहीं किया जाना चाहिए?

अरनब गोस्वामी की लीक की गयी चैट ने इस सरकार की रही सही साख खत्म कर दी है। चैट में कुछ भी नया नहीं है। इससे वही सब साबित होता है जिसका पुख्ता अनुमान किया जाता रहा है। दबी-छिपी जबान में वह सब बाहर आता भी रहा है लेकिन वह वक्त पावस का था और दादुर बोल रहे थे और उनका शोर इतना कर्कश था कि कोकिलाओं के राग किसी को समझ नहीं आ रहे थे ( संदर्भ – तुलसी पावस के समय धरी कोकिलन मौन।) अब वक़्त दादुरों से सच्चाई बुलवाने का आ चुका है। वो बोल रहे हैं। बोल वह तब भी रहे थे। इस कदर एकतरफा हो जाना क्या खुद संदेह के द्वार नहीं खोलता? खोलता है, लेकिन जैसा कि बीती रात टिकरी बॉर्डर पर सल्‍फ़ास खाकर आत्महत्या का प्रयास करने वाले एक किसान साथी भगवान राणा ने अपने आखिरी खत में लिखा कि मेरे भारत की पहचान, एक मजबूत जवान, मेहनती किसान, भोला इंसान।

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इन बीते सात सालों में इस भोले इंसान ने खुले हुए संदेहों के दरवाजों के उस तरफ झाँकने की कोशिश न की। अब वक़्त आया है तो दरवाजे खुलना शुरू हुए हैं। यह भोला इंसान जो हिंदुस्तान की पहचान है बक़ौल शहीद किसान भगवान राणा, वो अब अटकलें नहीं यकीन से कुछ कहने सड़क पर आ गया है। वो शहर-ए-सदर की सरहद पर बैठ गया है। बिना जवाब लिए न लौटने के संकल्प के साथ। मौसम ने परीक्षा ले ली उसकी, दमन ने ले ली, उपेक्षा ने ले ली, बदनाम करने के तमाम हथकंडों ने ले ली लेकिन मजाल कि उन पर कोई आंच आयी बल्कि वो सभी निस्तेज होते गए जो उसकी परीक्षा लेने गए। आज मीडिया जो सत्ता का भागीदार बन गया उसे उसकी जगह दिखला दी गयी। सर्वोच्च न्यायालय की साख जो उसने अपने आकाओं के कहने पर खुद ही धूल में मिला ली है आज अपनी करनी पर शर्मसार हो रहा है, खुद को ठीक से न समझे जाने की दुहाई दे रहा है। क्या आज़ाद हिंदुस्तान में सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे कभी इज़हार किया है?

आप तो माई लॉर्ड थे और हैं भी, आपको कौन गलत समझेगा? लेकिन आपको पता चल चुका है यह कहे बिना अब बची खुची साख भी ज़िंदा नहीं रह सकती इसलिए कहना पड़ रहा है। एनआईए के दफ्तर की सुरक्षा बढ़ायी जा चुकी है। सरकार के हाथ पाँव फूले हुए हैं। प्रधानमंत्री से लेकर अरनब की चैट की टाइमिंग से मिलान करने पर जो भी तत्कालीन रक्षामंत्री, गृहमंत्री, सेना प्रमुख और सुरक्षा सलाहकार थे उन्हें अपनी नियति आज व्हाइट हाउस से बेआबरू होकर रुखसत हो रहे ट्रम्प के करीब जाती हुई नज़र आ रही है।

जिसे कहने से डरते थे सब, आज नेता प्रतिपक्ष ने खुलकर कह दिया। कोई और मुल्क होता और पढ़े-लिखों का तर्क से तलाक न हुआ होता और उनके नाम के साथ उनकी जाति, और उसके जनक धर्म का द्योतक न जुड़ा होता। पेट्रोल-डीजल और खाद्यान्नों, फल सब्जियों की कीमतों में इस कदर आग न लगी होती, बच्चों की शिक्षा शिक्षा बढ़ती हुई फीस की फिक्र न होती और सबसे बड़ी बात कि हिन्दू राष्ट्र के केसरिया झंडे तले देश में सौ में 80 होने का दावा न करती, तो देश का ‘न भूतो न भविष्यति’ नेतृत्व का ट्रंपीकरण हो जाने से कोई रोक नहीं सकता था। जैसा किसान आंदोलन ने स्थापित कर दिया कि ये सांसद अगर ईवीएम से जीते हुए न होते, तो आज हिंदुस्तान की नियति भी मकर संक्रांति की बेला में अपनी दिशा बदल लेती।

लेकिन बदलाव ऐसे ही होता है। पहले कुछ बदलते हैं, फिर बहुत लोग बदलते हैं। एक लहर दूसरे के लिए जगह बनाती है, उसे पैदा करती है। लहरें अब शांत और ठहर चुके तालाब में हलचल मचा चुकी हैं। हम उन्हें उठते गिरते देख रहे हैं।

चीन अरुणाचल में घर बना रहा है, गाँव बसा रहा है। 50-60 किलोमीटर सड़क बना लेने का अनुमान कम भयावह नहीं है। यह स्वीकार खुद भाजपा के सांसद की तरफ से आ रहा है। इस पर भी अरनब चैटगेट में ‘अनुपयोगी’ (उसने लिखा था यूज़लेस) कहे गए मंत्री की तरफ से कहा जा रहा है कि कांग्रेस ने चीन से पैसा लेकर उन्हें देश की ज़मीन बेच दी है। क्या इन्हें किसी ने नहीं सिखाया कि जब बुरा वक़्त शुरू हो जाए तो जुबान को काबू में रखना चाहिए? शायद नहीं, या यही अर्जुन के तरकश के वो तीर हैं जिन्हें महाभारत जीत लेने का अहंकार आ गया था।

मामला दिलचस्प मोड़ पर आस्ट्रेलिया में आ गया। एक और अहमक़ और अहंकारी कप्तान की गैर मौजूदगी में तमाम तरह से चोटिल ग्यारह लगभग गुमनाम युवाओं की टीम ने रफ्ता रफ्ता संघर्ष करके इतिहास रच दिया और इस धारणा पर बेहद रचनात्‍मक ढंग से प्रहार किया कि ‘विकल्पहीन नहीं है दुनिया’।

“कल और आएंगे नग़मों की खिलती कलियाँ चुनने वाले, मुझसे बेहतर कहने वाले, तुमसे बेहतर सुनने वाले”- क्या मुकेश ने यह सदानीरा गीत इसी वक़्त के एहसास के लिए गाया था? शायद।

26 जनवरी क्या ‘रिपब्लिक’ पर पुनर्दखल का दिन होने जा रहा है? सात सालों से ‘अपहृत गणराज्य’ की मुक्ति की दिशा में क्या देश बढ़ रहा है? शायद। आपको क्या लगता है?


आवरण चित्र: गोपाल नायडू


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