बिहार: एक पुल के इंतज़ार में 42 साल से यहां ढलती जा रही हैं पीढ़ियां


इंतज़ार किसे कहते हैं और इसका दर्द क्या होता है, अगर ये महसूस करना हो तो कभी मुजफ्फरपुर के गायघाट प्रखण्ड की लदौर पंचायत चले जाइए। यहां विकास की राह देखते-देखते गांव की कई पीढ़ियां दुनिया से रुख़सत हो गयीं तो कई लोग गांव छोड़ गये, लेकिन विकास नहीं आया। विकास इस गांव के लोगों के लिए एक सपना है। उनके लिए जिंदा रहने का मकसद है।

मुजफ्फरपुर और दरभंगा जिले की सीमा पर नेशनल हाइवे 57 से महज डेढ़ किलोमीटर दक्षिण की दिशा में बसा यह गांव अपने ही नागरिकों के प्रति सत्ता, सियासत और प्रशासनिक उपेक्षा का जीता-जागता एक मिसाल है। यह गांव इस बात का सबूत और गवाह है कि आखिर कैसे नेता, जनप्रतिनिधि और अधिकारी उसी जनता से अपना मुंह मोड़ लेते हैं जिसकी सेवा करने का संकल्प लेकर वे अपने पद और गोपनीयता की शपथ लेते हैं।

तकरीबन दस हजार की आबादी वाली लदौर पंचायत में लदौर और बलहा दो गांव आते हैं। लदौर कुल 478 हेक्टेयर और बलहा गांव 34.1 हेक्टेयर क्षेत्र में फैला हुआ है। दोनों गांवों को मिलाकर यहां डेढ़ हजार के आस-पास घर हैं। इस पंचायत में सवर्ण, पिछड़ा और दलित सभी समुदायों की मिक्स आबादी है। गांव में कई घरों के बाहर चारपहिया वाहन हैं। गांव की कुछ सड़कें पक्की हैं तो कुछ कच्ची और टूटी हुई हैं। बलहा में दुर्गा देवी का एक खूबसूरत-सा विशाल मंदिर है। गांव में बड़े-बड़े कई आलीशान मकान हैं। गांव वाले कहते हैं, ’’इन मकानों में कोई रहता नहीं है। सब लोग गांव छोड़कर बाहर चले गए हैं।’’ गांव छोड़कर चले जाना ही शायद उनकी नियति‍ थी!    

विकास का मतलब एक अदद पुल, वो भी मयस्सर नहीं

लदौर पंचायत चार भौगोलिक क्षेत्रों में बंटी हुई है। लदौर गांव को बीचोबीच रजुआ नदी बांटती है। यानी गांव की आधी आबादी इस तरफ और आधी उस तरफ। रजुआ नदी इसी पंचायत के बलहा गांव में बहने वाली बागमती नदी की एक सहायक नदी है। बागमती नदी भी बलहा गांव को बीचोबीच बांटती है। यहां भी गांव की आधी आबादी नदी के इस पार तो आधी उस पार रहती है। यहां दिलचस्प बात यह है कि न तो लदौर गांव के दो भागों को आपस में जोड़ने के लिए रजुआ नदी पर कोई पुल है और न ही बलहा गांव में बागमती नदी के दो तीरों पर बसे गांव को जोड़ने के लिए कोई पुल है। यही इन दोनों गांवों और यहां के निवासियों का दुर्भाग्य है! एक पंचायत और एक गांव में रहते हुए उन्हें गांव के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में जाने के लिए लगभग 15 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है।

गांव के किसान मुनचुन तिवारी कहते हैं, ’’यहां सिर्फ दो गांवों के चार हिस्सों में बंटने भर का मामला नहीं है। इन दोनों नदियों पर पुल नहीं होने से इस इलाके के हरपुर, जगनियां, भगमदपुर, फतेहपुर जैसे लगभग दर्जन भर गांवों की 25 से 30 हजार की आबादी प्रभावित है। इस गांव के लोगों को नेशनल हाइवे-57 के रास्ते दरभंगा या मुजफ्फरपुर जाने के लिए लगभग 25 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है। अगर यहां दोनों नदियों पर पुल का निर्माण हो जाए तो आसपास के ग्रामीणों को हाइवे तक पहुंचने में महज 3 से 10 किमी की दूरी तय करनी पड़ेगी।’’

पुल बनने के बाद इस इलाके का संपर्क पड़ोसी जिले समस्तीपुर से भी बढ़ जाएगा। अभी दरभंगा और मुजफ्फरपुर के रास्ते समस्तीपुर 50 से 65 किलोमीटर दूर पड़ता है, लेकिन पुल बनने के बाद यह दूरी 35 से 40 किलोमीटर में सिमट जाएगी।

जॉर्ज फर्नांडीज़ ने की थी रजुआ पुल की घोषणा, आज तक पुल अधूरा

पहली बार वर्ष 1978 में मुजफ्फरपुर के तत्कालीन सांसद जॉर्ज फर्नांडीज़ (अब दिवंगत) ने इस गांव का दौरा करने के बाद ग्रामीणों की परेशानी देखकर रजुआ नदी पर पुल बनाने की घोषणा की थी। आज 42 साल बाद भी ग्रामीण इस पुल के इंतजार में हैं।

ग्रामीण अनिल कुमार झा कहते हैं, ’’गांव के निवासियों द्वारा बहुत-सी लड़ाइयां लड़ने और संघर्षों के बाद वर्ष 2012 में सरकार ने इस पुल का टेंडर निकाला था। ग्रामीण विकास विभाग के मद से इसे फंड दिया गया था। रजुआ नदी पर पुल बनाने का काम शुरू हुआ, तो गांववालों को लगा कि उनका संघर्ष सफल हो गया, अब उनके दिन बहुरेंगे, लेकिन उनकी उम्मीदों को फिर किसी की नज़र लग गयी और पुल का काम रुक गया।’’

नदी पर लगभग साल भर पुल निर्माण का काम चला। लगभग आठ पिलर भी बनाकर तैयार किया गया। बाद में एक पिलर पानी में धंस गया। इसी बीच पुल के निर्माण में भारी भ्रष्टाचार और अनियमितता की खबर आयी। ग्रामीण कहते हैं, ’’सरकार ने लापरवाही और भ्रष्टाचार के कारण ठेकेदार संजय सिंह को ब्लैकलिस्ट कर दिया और पुल निर्माण का काम रोक दिया गया।’’

गांव की मुखिया सुनि‍ता देवी कहती हैं, ’’हमने अपने स्तर पर सभी प्रयास और दाव आजमा लिए हैं, लेकिन कहीं कोई सुनवाई नहीं हुई।’’ सुनिता देवी इलाके के विधायक और सांसद से मिलकर गांव की व्यथा सुना चुकी हैं, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। वह मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री कार्यालय को इस मुद्दे पर चिट्ठी भी लिख चुकी हैं, लेकिन न तो उनकी चिट्ठी का कोई जवाब आया न कोई कार्रवाई हुई। 

गांव के पुल का सवाल आज भी वहीं खड़ा है

गांव के पूर्व मुखिया दीपक कुमार झा कहते हैं, ’’यहां से चुनाव लड़ने वाले सभी जनप्रतिनिधियों की तरक्की हुई लेकिन गांव के पुल का सवाल आज भी वहीं खड़ा है।’’  

भाजपा के अजय निषाद यहां के सांसद हैं। इससे पहले उनके पिता दिवंगत जयनारायण निषाद तीन बार क्षेत्र के सांसद रह चुके हैं। राष्ट्रीय जनता दल के महेश्वर प्रसाद यादव वर्तमान विधायक हैं। इस साल पार्टी ने उन्हें चुनाव लड़ने के लिए टिकट नहीं दिया तो वह राजद छोड़कर जदयू में चले गए और जदयू के टिकट पर ही चुनाव लड़ रहे हैं। यहां की पूर्व विधायक वीणा देवी अभी वैशाली से लोजपा की सांसद हैं। उनकी बेटी कोमल सिंह इस विधानसभा चुनाव में लोजपा के टिकट पर गायघाट क्षेत्र से चुनाव लड़ रही हैं। वीणा देवी के पति दिनेश प्रसाद सिंह भी मुजफ्फरपुर सीट से विधान परिषद् में एमएलसी हैं।

रजुआ नदी के निर्माणाधीन पुल पर जब क्षेत्र के विधायक महेश्वर प्रसाद यादव का पक्ष जानने के लिए उनसे संपर्क किया गया, तो उन्होंने फोन नहीं उठाया। उनको भेजे गए एसएमएस का भी कोई जवाब नहीं आया। इलाके के सांसद अजय निषाद इस समय कोरोना पॉजिटिव होने के कारण एम्स में भर्ती हैं इसलिए उनसे संपर्क नहीं हो पाया, हालांकि उनकी पार्टी के मुजफ्फरपुर के पदाधिकारियों ने बताया कि यह पुल बिहार सरकार की योजना के तहत बन रहा था। ठेकेदार एवं बिहार सरकार के बीच विवाद के कारण कोर्ट में अभी इस मामले की सुनवाई चल रही है। इस वजह से पार्टी इस मामले में कोई टिप्पणी नहीं करेगी। 

बागमती पर चचरी पुल या नाव के सहारे लोग पार करते हैं नदी

नया चचरी पुल बनाने के लिए नदी के पास बांस काट रहे मजदूर

इसी पंचायत के बलहा गांव के बीच से बहने वाली बागमती नदी को लोग बांस से बने जुगाड़ वाले चचरी पुल के सहारे पार करते हैं। यह पुल साल भर से ज्यादा नहीं चल पाता है। अभी पुराना पुल ध्वस्त होकर गिर चुका है। नया चचरी पुल बनाने के लिए नदी के पास बांस काट रहे मजदूर देवेन्द्र सहनी बताते हैं, ’’एक चचरी पुल बनाने में मजदूरी और बांस मिलाकर दोनों का खर्चा लगभग एक लाख रुपया आता है। गांव के लोग आपस में चंदा कर पुल बनाने के लिए धन जमा करते हैं।’’

चचरी पुल नहीं होने पर देवेंद्र सहनी नाव से लोगों को नदी पार कराते हैं। सहनी कहते हैं, ’’नाव से नदी पार कराने का एक व्यक्ति का 5 रुपया किराया होता है। अगर मोटरसाइकिल पार करानी हो तो 20 रुपया लेते हैं। वैसे यहां कोई गैर नहीं है, सभी अपने लोग हैं। अगर किसी के पास पैसे न हों तो भी उसे नदी पार करा देते हैं। नाव की सेवा सुबह 6 बजे से रात 10 बजे तक उपलब्ध रहती है।’’

दीपक झा कहते हैं, ’’जब बरसात के दिनों में पानी भरा हो तो चचरी पुल और नाव के सहारे नदी पार करना काफ़ी खतरनाक होता है। अब तक कई हादसे हो चुके हैं। हर साल जान-माल की काफी बर्बादी होती है।’’ दीपक पूछते हैं कि जब गांव के एक पुल का निर्माण ही वर्षों से पूरा नहीं हुआ तो दूसरे पुल का निर्माण कैसे और कौन करेगा?

बागमती नदी के तटीय इलाके में कटान भी एक बड़ी समस्या है। हर साल गांव के कई खेत और गरीबों के घर नदी में समा जाते हैं।

पुल नहीं होने के कारण गांव से हो रहा पलायन

गांव में काम के अवसर की कमी और शहर से संपर्क नहीं होने पर यहां के ज्यादातर मजदूर पलायन कर महानगर चले जाते हैं। लॉकडाउन में दिल्ली से लौटे मजदूर बिजली पासवान कहते हैं, ’’गांव में अगर किसी को सांप काट ले या किसी को इमर्जेंसी में अस्पताल ले जाना हो तो मरीज रास्ते में ही दम तोड़ देता है।’’

शकुंतला देवी की परेशानी यह है कि उन्हें सरकारी राशन दुकान से अनाज लेने के लिए अपनी ही पंचायत में आने-जाने के लिए 60 रूपया ऑटो का किराया देना पड़ जाता है और पूरा दिन लग जाता है सो अलग।

ग्रामीण अनिल झा कहते हैं, ’’पुल नहीं होने से सबसे ज्यादा परेशानी गांव की लड़कियों को स्कूल जाने में होती है। बच्चों को शिक्षा देने के लिए कई लोग गांव छोड़कर शहर में रहते हैं, जो सक्षम नहीं है उनके घरों की लड़कियां मजबूरी में पढ़ाई छोड़ देती हैं। गांव के लड़के-लड़कियों के लिए अच्छे गांवों से रिश्ते नहीं आते हैं। इस वजह से गांव के कई परिवार गांव में अच्छा मकान और सुख-सुविधा रहते हुए भी गांव छोड़ कर शहर में बस चुके हैं।’’


यह रिपोर्ट सेंटर फाॅर रिसर्च एंड डायलॉग ट्रस्ट के बिहार चुनाव रिपोर्टिंग फेलोशिप के तहत प्रकाशित की गई है।


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