गुंटर ग्रास की कविता पर जो बहस पिछले दिनों शुरू हुई थी, वह हिंदी अखबारों का हिस्सा बन चुकी है। अफसोस केवल इस बात का है कि अखबारों ने अब लेखकों का नाम लेकर उनकी आलोचना करने से भी परहेज़ शुरू कर दिया है। आज दैनिक भास्कर में रंजीत वर्मा का लिखा लेख देखें ”कविता की राजनीति और राजनीतिक कविता”, तो यह बात साफ हो जाती है। संपादक ने मूल लेख में से भास्कर में ही 21 अप्रैल को छपे प्रियदर्शन के लेख का जि़क्र और उसकी आलोचना को उड़ा दिया है। इतना ही नहीं, अशोक वाजपेयी का भी संदर्भ छूते-छुआते आया है और सबसे जघन्य अपराध संपादक ने यह किया है कि पहली ही पंक्ति में मुकेश अम्बानी और उनके राजमहल एंटिला का नाम उड़ा दिया है। हिंदी के अखबार में कविता पर लिखे एक लेख को छापते वक्त अखबार के कारोबारी हित (मुकेश अम्बानी के संदर्भ में) और संपादक की दोस्ती-यारी व सुविधा को ध्यान में रखा जाना दुनिया की सबसे अनैतिक बात हो सकती है, वो भी तब जब कविता गुंटर ग्रास की हो और बहस वैश्विक। बहरहाल, नीचे रंजीत जी का मूल लेख चस्पां है। आज छपे हुए लेख से मिलान कर के देखिए, समझ में आ जाएगा कैसे रेता गया है इसे। साथ में अशोक वाजपेयी व प्रियदर्शन की टिप्पणियां भी लगा रहा हूं जिनकी आलोचना रंजीत जी ने की है।एक आखिरी सवाल भास्कर से ज़रूर पूछा जाना चाहिए कि कहीं उसके संपादक को भी तो अज्ञेयवादी रसरंजन का चस्का नहीं लग गया? जनसत्ता से तो खैर उम्मीद ही नहीं थी कि वह राजनीतिक कविता के राजनीतिक मूल्य पर बात करे, लेकिन भास्कर ने एक राजनीतिक आलेख में दोस्ती-यारी वाला संपादन कर के ओछी मिसाल पेश की है। क्या हम इस प्रवृत्ति को अंग्रेज़ी में ”क्रोनी जर्नलिज्म” कहने की छूट ले सकते हैं, बिल्कुल क्रोनी कैपिटलिज्म की तर्ज पर… ???
प्रगतिशील और प्रतिगामी के मापदंड को धुंधला करने की साजि़श कर रहे हैं अशोक वाजपेयी और प्रियदर्शन
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रंजीत वर्मा |
एक ऐसे समय में जब विषमता की खाई सबसे अधिक चौड़ी होकर समाज को दो भागों में बांट रही हो यानी कि जब एक ओर करोड़ों में एंटिला (मुकेश अंबानी का घर) के बनने और दूसरी ओर करोड़ों लोगों के घर-गांव उजाड़े जाने के बीच के किसी दुर्दांत मोड़ पर यह देश खड़ा हो और ठीक इसी समय में आपके हाथ में कलम हो और आप कविता लिखने का काम करते हों, तो क्या आपने कभी सोचा कि आपके ऊपर यह कैसी जवाबदेही आन पड़ी है? या आप बिना सोचे ही बस लिखे जा रहे हैं? और आप ऐसा सिर्फ इसलिए कर रहे हैं क्योंकि आपको पता है कि बेहतर या कहना चाहिये कि सुघड़ लगने वाली कविता कैसे लिखी जाती है? लेकिन क्या आपने कभी यह भी सोचा कि आखिर आप लिख क्यों रहे हैं और अगर नहीं, तो आप कम से कम यही सोचे होते कि यह जो कविता आप लिख रहे हैं वह आप किसके लिए लिख रहे हैं? क्या किसी को इसकी जरूरत है या यह आपका कोई निजी कारोबार है? बाजार आपकी कविता का तो कहीं है नहीं जो आप कह सकें कि आप रुपये बनाने के लिए यह सब कर रहे हैं। फिर आप क्या कहेंगे? मुझे पता है आप कहेंगे कि और चाहे जो हो लेकिन मैं किसी राजनीति के तहत कविता नहीं लिखता। जाहिर है कि ऐसा कहते वक्त आप राजनीति को दुराग्रह मान कर चल रहे हैं। और यहीं आपकी प्रतिगामी राजनीति की दिशा तय हो जाती है। हालांकि इसे आप राजनीति मानने से गुरेज करते हैं जबकि आपको यह अच्छी तरह पता होता है कि आप किन करोड़ों लोगों के खिलाफ कार्रवाई में उतर चुके हैं।
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अशोक वाजपेयी का ‘कभी-कभार’ |
गुंटर ग्रास की कविता पूरे यूरोप और अरब में खलबली पैदा की हुई है। अरब जहां इस कविता का स्वागत कर रहा है वहीं इजराइल ने न सिर्फ इस कविता पर पाबंदी लगा दी है बल्कि गुंटर ग्रास के इजराइल आने पर भी रोक लगा दी है। हिंदी में इस कविता ने अपने ढंग की बहस खड़ी कर दी है जिसके मूल में वही पुराने सवाल हैं जो अमूमन राजनीतिक कविताओं पर उठाये जाते हैं, जैसे कि कविता में बयानबाजी ज्यादा है, कलापक्ष बेहद कमजोर है, कविता कहीं नज़र नहीं आती वगैरह वगैरह- जैसा कि अशोक वाजपेयी ने जनसत्ता में अपने कॉलम ’कभी-कभार’ में लिखा है कि इसे ’कविता मानने में संकोच होता है’। गुंटर ग्रास की कविता ’जो जरूर कहा जाना चाहिये’ पर इस तरह का घुटा घुटाया आरोप लगाने से पहले उन्हें चाहिये था कि वे पूरी कविता पूरे मनोयोग से तीन-चार बार पढ़ लेते। क्या पता शायद पढ़ा भी हो, लेकिन इसके बावजूद उन्हें बात शायद इसलिए समझ में नहीं आयी हो क्योंकि हो सकता है उन्हें पता न हो कि यह कविता ही है जो समय के पार निकल कर विस्मृतियों तक जाती है और वहां से चीजों को लाकर सामयिक संदर्भों में बदल देती है। अगर वे कविता की जगह इस तकनीक का इस्तेमाल अपना वक्तव्य देने में करते तब भी यही कहा जाता कि यह कविता है। जैसा कि उन्होंने अपनी इस कविता में एक जगह लिखा है कि ’’आसन्न खतरा बरपाने वालों के लिए होगी एक अपील भी’’, लेकिन इसके बावजूद वह जो अपील करते हैं उसे कविता से बाहर नहीं किया जा सकता, वह कविता का एक अभिन्न हिस्सा है। कविता की शुरूआती पंक्तियों में ही जब वे कहते हैं ”अब तक मैं खामोश क्यों रहा” तो यह किसी वक्तव्य की पंक्ति न होकर तत्काल किसी कविता की पंक्ति हो जाती है।
पूरी दुनिया में राजनीतिक कविता पर हमला करने का यह आजमाया हुआ नुस्खा है जिसका इस्तेमाल हिंदी में भी धड़ल्ले से किया जा रहा है कि उसे कलाविहीन साबित कर दो। लेकिन यह फार्मूला कुछ खास कारगर हुआ नहीं। न राजनीतिक कविताओं का लिखा जाना रुका और न वे असर पैदा करने में कमतर साबित हुईं। उदाहरण के तौर पर गुंटर ग्रास की इसी कविता को देखा जा सकता है जिसने पूरी दूनिया में अपनी तरह की बहस खड़ी कर दी है। इसलिए अब वे अपने पहले के तर्क को थोड़ा बेहतर करते हुए कह रहे हैं कि यह कविता सपाट शैली के कारण ही असर पैदा कर पायी। उनका कहना है कि ”ऐसी सपाट और स्थूल कविताएं ही आज की राजनीतिक व्यवस्थाओं को समझ में आ सकती हैं, वे सूक्ष्म और बारीक अभिव्यक्तियां नहीं जो बेहतर कविता की कसौटी मानी जाती हैं।” (देखें 21.4.2012 को दैनिक भास्कर में छपा प्रियदर्शन का लेख ‘इजरायल की दीवार के आगे ग्रास’) यानी कि अब किसी भी स्थिति में राजनीतिक कविताओं पर बहस करने की कोई जरूरत ही नहीं। क्योंकि अगर कविता असर पैदा कर गयी तो जाहिर है कि वह सपाट है तो फिर उस पर बात क्या। और अगर असर पैदा नहीं कर पायी तो वैसी कविता पर बात करने की जरूरत ही क्या!
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प्रियदर्शन का भास्कर में छपा लेख |
हालांकि ये बातें जो हिंदी में आज 2012 में कही जा रही हैं उसका जवाब आज से 18 साल पहले 1994 में ही अमेरिकी कवि फिलिप लेविन ने अपने एक साक्षात्कार में दे दिया था जब प्रश्नकर्ता ने उनसे वेलेतो, हर्नान्डिज या नेरुदा की कमजोर राजनीतिक कविता को लेकर सवाल किया था। उन्होंने यह स्वीकार करते हुए कि नेरुदा ने कुछ कमजोर राजनीतिक कविताएं लिखी हैं, अपने जवाब में कहा था कि ”…जब इस आदमी की कविता के विशाल फलक से आप कुछ कमजोर कविताएं ढूंढ लेते हैं और उन्हीं कमजोर कविताओं का बार-बार उदाहरण देते हुए आप यह सिद्ध करने की कोशिश करते हैं कि देखिये, जब आप राजनीतिक हो जाते हैं तो इस तरह की कमजोर कविताएं लिखते हैं- मैं समझता हूं कि यह पूरा दृष्टिकोण ही गलत है।” हो सकता है किसी को यह कविता कमजोर लगे लेकिन तब भी न तो प्रियदर्शन की तरह निष्कर्ष पर पहुंचना उचित है और न ही अशोक वाजपेयी की तरह यह नसीहत देना कि उन्होंने इस काम के लिए कविता की विधा का इस्तेमाल क्यों किया, वे वक्तव्य जारी करते तब भी पूरी दुनिया का ध्यान उधर जाता।
वैसे कहा जाए तो प्रतिक्रियावादियों ने काट के तौर पर एक तीसरा तरीका भी डेवलप कर लिया है जो पहले और दूसरे तरीके के मुकाबले जितना ज्यादा खतरनाक है उससे कम हास्यास्पद नहीं। अपने कॉलम ‘कभी-कभार’ में अशोक वाजपेयी लिखते हैं, ”यह नहीं कि कविता में राजनीतिक मत या विचार प्रकट नहीं किये जा सकते हैं: स्वयं जर्मनी में बर्टोल्ट ब्रेख्त, भारत में फैज़ अहमद फैज़, मुक्तिबोध, नागार्जुन, अज्ञेय आदि ने ऐसा किया है….।” इस तीसरे तरीके की बानगी आप यहां देख सकते हैं। अज्ञेय का नाम जिस तरह से उन्होंने प्रगतिशील विचार रखने वाले तमाम मार्क्सवादी कवियों के साथ जोड़ते हुए एक सांस में रखा है, वह किसी अवचेतन के तहत बस यूं ही नहीं रख दिया है बल्कि सोची समझी योजना के तहत उन प्रसिद्ध प्रगतिशील कवियों के साथ अशोक वाजपेयी ने अज्ञेय का नाम डाला है। इससे ज्यादा भयानक कोशिश और क्या हो सकती है कि उस मापदंड को ही धुंधला कर दो जो साहित्य को प्रगतिशील और प्रतिगामी धड़ों में बांटता है। राजनीतिक कविता के नाम पर भगवा चिंतन को मार्क्सवादी चिंतन के साथ एक कतार में नहीं खड़ा किया जा सकता।
मैं एक बार फिर फिलिप लेविन को उद्धृत करना चाहूंगा। अपने एक साक्षात्कार में वे कहते हैं, ”…यदि आप सचमुच कवि हैं तो यह काम एक राजनीतिक कार्यवाही है। यदि आप व्हाइट हाउस जाना चाहते हैं और लोगों का मनोरंजन करना चाहते हैं,यदि आप कविता के समी डेविड या रोड म्यूकेन हैं, तब भी आप एक खास अर्थ में राजनैतिक कार्यवाही कर रहे हैं, चाटुकारिता की कार्यवाही।”यानी कि फिलिप लेविन ने भी इस विभेद को जरूरी माना है। इसी तर्ज पर कहा जा सकता है कि अज्ञेय या उस धारा के किसी भी कवि को मुक्तिबोध, नागार्जुन, फैज़ या ब्रेख्त के साथ रख कर नहीं देखा जा सकता। विचार की दो लाइनें हैं ये। यह कह कर कि जो क्लास मुक्तिबोध में है वही अज्ञेय में भी है इसलिए दोनों एक तरह के राजनीतिक कवि हैं, एक साजिशपूर्ण अवधारणा है। ऐसी अवधारणाओं का तब तक पुरजोर तरीके से खंडन करते रहना चाहिए जब तक वे साहित्य के अंधेरे में जहां-तहां घात लगाये बैठे दिखते हों। आवाजाही के पक्ष में जो लोग हैं, उन्हें भी इस पर ध्यान देने की जरूरत है।
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और ये रहा रंजीत वर्मा का भास्कर में बलात्कृत लेख |
रंजीत भाई का आलेख एक ज़रूरी बहस उठाता है. राजनीतिक कविताओं को जिस तरह कला के किन्हीं मानदंडों पर कस के खारिज करने का षड्यंत्र होता है, वह कलावादियों का पुराना खेल है.
मार्क्सवादी होना अहम् है या मानवीय होना? क्या अज्ञेय मानववादी नहीं थे? क्या वे दानव थे, आमानवीय और समाज-विरोधी? क्या वामपंथी पत्रिका "उद्भावना" में छपी अज्ञेय की जन-पक्ष वाली कविताओं को आपने याने वर्मा या पांडे ने पढ़ा है? अनपढ़ लोगों के हाथों में दूर देस का फिलिप लेविन कौनसी चाबुक है जिससे जब चाहे अशोक वाजपेयी को पीट सके और प्रियदर्शन को भी? क्या प्रियदर्शन की बौधिक उंचाई की थाह आपको है? वे साहित्य में कम आते जाते होंगे पर जब भी आते हैं गौर से पढ़े जाते हैं.