दिखावटी राजनीति से सावधान: प्रियदर्शन


दैनिक भास्‍कर में रंजीत वर्मा के छपे लेख की मूल प्रति में से प्रियदर्शन के लेख की आलोचना को संपादित किए जाने संबंधी पोस्‍ट पर प्रियदर्शन जी ने अपना पक्ष रखा है। क्रोनी संपादन से लेकर गुंटर ग्रास की कविता और रंजीत जी की आलोचना तक हर चीज़ पर बिंदुवार उन्‍होंने बड़ी सार्थक टिप्‍पणी भेजी है और दिखावटी क्रांतिकारिता से आगाह भी किया है। इस टिप्‍पणी को हम हिंदी के एक लेखक का प्रतिनिधि आत्‍मकथ्‍य मान सकते हैं। जहां तक मेरे द्वारा क्रोनी जर्नलिज्‍म नामक शब्‍द के इस्‍तेमाल की बात है, तो मैंने टिप्‍पणी में पूछा ही था कि क्‍या मैं इसे लिखने की छूट ले सकता हूं। उस वक्‍त मेरे मन में यह बात थी और अब भी है कि यह कुछ ज्‍यादा सख्‍त हो गया था और इसका पार्टीज़न इस्‍तेमाल ही इसे सार्थक बना सकता है, वर्ना हिट विकेट हो जाने का खतरा है। प्रियदर्शन जी को यह शब्‍द बुरा लगा है, ज़ाहिर है क्रोनी के प्रयोग का परिप्रेक्ष्‍य  मिसप्‍लेस्‍ड माना जा सकता है। लेकिन जो मूल बात है, वो अपनी जगह कायम है और प्रियदर्शन जी ने कायदे से उस पर रोशनी डाली है। उन्‍होंने भले आखिर में इस बहस से खुद को अलग कर लिया हो, लेकिन बहस अपनी जगह अब भी बनी हुई है और बात जारी रहे, तो शायद ”वास्‍तविक” और ”दिखावटी” क्रांतिकारिता के कई और पहलू सामने आ सकें।

प्रियदर्शन

 हिंदी के लेखक और टिप्पणीकार किस दुस्साहस के साथ दूसरों पर बेधड़क टिप्पणी करते हैं, यह बात काफी हैरान करने वाली है। रंजीत वर्मा से मेरा संक्षिप्त परिचय है और अभिषेक श्रीवास्तव से उतना भी नहीं। लेकिन एक ने मुझे कलावादी ठहरा दिया, दूसरे ने मुझे क्रोनी जर्नलिज़्म का हिस्सा करार दिया। रंजीत वर्मा ने मेरे लिखे हुए में एक साज़िश भी देख ली- वह भी अशोक वाजपेयी के साथ मिलकर की गई साज़िश। प्रसंगवश, फिर बता दूं, कि अशोक वाजपेयी से भी मेरा संवाद उतना ही भर है जितना शायद अभिषेक श्रीवास्तव से-कार्यक्रमों की दुआ-सलाम और एकाध बार की निहायत संक्षिप्त- कुछ सूचनाओं के लेन देन तक सीमित- टेलीफोन पर हुई बातचीत के अलावा कुछ नहीं। सिर्फ अशोक वाजपेयी से ही नहीं, हिंदी के ज़्यादातर लेखकों से मेरे संवाद की स्थिति यही है- बेशक, राजेंद्र यादव इसके अपवाद हैं जिनसे कुछ ज़्यादा संवाद रहा है। शायद यह मेरा स्वभाव है, मेरी सीमा है- आपको अच्छा लगे ठीक, बुरा लगे तो भी ठीक।

मैं क्यों लिखता हूं? इस भयानक विषमता और गरीबीके बीच क्यों लिखता हूं? रंजीत वर्मा ने पूछा भी और जान भी गए कि मैं उन्हें क्या जवाब दूंगा। लेकिन दरअसल ऐसे सयाने सवाल और सयाने जवाब उन लोगों को चाहिए होते हैं जो ज़रूरत के हिसाब से पाले, पत्रिकाएं, अख़बार और मैत्रियां बदलते हैं, जो अपने लिखने के लिए एक बड़ा सा उद्देश्य बताते हैं और फिर लेखन को बहुत महान सी चीज़ की तरह पेश करते हैं।

मैं शायद पहले भी लिख चुका हूं- मैं बस इसलिए लिखता हूं कि लिखना मुझे अच्छा लगता है। कोई मेरा लिखा पढ़ ले तो और अच्छा लगता है, बाज़ार उसका कुछ मोल दे दे- ना कुछ पारिश्रमिक के तौर पर ही- तो कुछ और अच्छा लगने लगता है, वह किसी के काम आ सके तो शायद सबसे अच्छा लगता है। मैं बहुत लिखता हूं- इसके बहुत सारे बाहरी दबाव भी होते हैं- नौकरी का दबाव, दूसरों के कहे का दबाव, अपने भीतर से उठी किसी प्रतिक्रिया का दबाव, और शायद, इन सबके साथ थोड़ी सी प्रसिद्धि की कामना का भी दबाव- हालांकि हिंदी का लेखक अपने ही समाज में जैसा बेचेहरा प्राणी है और लोगों को जैसे प्रसिद्धि मिलती है, उसे देखते हुए ऐसी कामना हास्यास्पद लगती है, फिर भी एक सदाशयी इच्छा उभरती है कि हिंदी का लेखक सिर्फ अपने लेखन के बूते जाना जाए। दूसरी बात यह कि लेखन का मोल मेरे लिए इन दबावों से ज़्यादा है। लिखना मुझे क्यों अच्छा लगता है?  क्योंकि उससे अपने-आप को, अपने समाज को, अपने समय को बार-बार पहचानने में मुझे मदद मिलती है। लिखना मुझे अच्छा लगता है क्योंकि लिखते हुए जीवन की तहें मेरे आगे खुलती हैं।

अब अपनी राजनीति पर आ जाऊं। मेरी राजनीति साफ है- वह मेरे लेखन में ज़रूरत के हिसाब से झलकती भी होगी- भले सायास ढंग से, दूर से नज़र आने के लिए पोती हुई, या थोपी हुई न दिखे। मैं इंसाफ़ और बराबरी का हामी हूं और हिंसा के ख़िलाफ़ हूं – जो व्यवस्थाएं किसी भी किस्म की सांप्रदायिक, लैंगिक, आर्थिक गैरबराबरी का, हिंसा का पोषण करती हैं, मैं उनके विरुद्ध हूं। हालांकि यह लिखते-लिखते भी ध्यान आ रहा है कि हम सब ऐसी ही व्यवस्था में जीने के आदी बनाए जा रहे हैं, कुछ कम मनुष्य होकर रहने को अभिशप्त हैं। लेखन निजी स्तर पर मेरे लिए इस प्रक्रिया का प्रतिरोध भी है। इस राजनीति को इसके आगे भी साफ कर सकता हूं लेकिन एक पेशेवर लेखक होने के नाते जानता हूं कि इस विषयांतर से मुझे बचना चाहिए। मैंने बस अपने लिए जो बड़ी लकीर बनाई है, वह आपके सामने रख दी है।

लेकिन लेखक विचारधाराओं के प्रहरी की तरह काम करे, यह बात मुझे कुछ जंचती नहीं। मैं विचारधाराओं के दुर्गों की दरार देखना अपना फर्ज समझता हूं। मैं किलों और परकोटों के भीतर चल रही पाखंडपूर्ण राजनीति का परदा हटाने वाले लेखकों को ज़्यादा ध्यान से पढ़ना चाहता हूं, उन लेखकों को नहीं जो विचारधारा के दुर्गों पर खड्गहस्त पहरा देते हों और ज़रा भी कोई अगल-बगल की दीवार से झांकता दिखे तो उसका सर कलम करने को बेताब रहते हों। दुर्भाग्य से हमारे समय का बहुत सारा लेखन- हिंदी में भी और दूसरी देसी-विदेशी भाषाओं में भी- राजनीतिक विचारधाराओं का चारण लेखन है- रंजीत वर्मा के लेख की ही तरह बहुत सतही और सपाट लेखन है जिसे मैं अपने स्तर पर ख़ारिज करता हूं।

अब गुंटर ग्रास प्रसंग पर आएं। फिर दुहराता हूं कि गुंटर ग्रास की कविता पता नहीं, मूल जर्मन में कैसी होगी, लेकिन अपने अंग्रेजी अनुवाद में बहुत औसत या ख़राब कविता है। इसलिए नहीं कि उसमें सुघड़ पंक्तियां नहीं हैं या उसमें अभिव्यक्ति की बारीक छिलाइयां नहीं हैं- ऐसी सुघड़ पंक्तियां और बारीक छिलाइयों पर जान छिड़कने वाली कविताएं भी ख़राब ही होती हैं- बल्कि इसलिए कि वह इजराइल और ईरान की राजनीति को लेकर कोई ऐसी बात नहीं कहती जिससे हमारा परिचय न हो। ध्यान दें कि गुंटर ग्रास की कविता पर बहस इसलिए नहीं हो रही कि उसने इस वैश्विक राजनीति पर कोई नई बात छेड़ी है, बल्कि कविता पर बहस हो भी नहीं रही है, गुंटर ग्रास की राजनीति पर बहस हो रही है कि एक जर्मन लेखक ने इज़राइल के विरुद्ध और ईरान के समर्थन में ऐसी पोजीशन क्यों ले ली।

लेकिन एक लेखक के तौर पर मैं गुंटर ग्रास के साथ हूं। उसे अपनी बात कहने का हक है और अगर उसकी बात सुनकर दुनिया बेचैन होती है तो यह एक लेखक के तौर पर उसकी सफलता भी है। लेकिन इस राजनीति को अपना काम करने दीजिए, एक पत्रकार और लेखक के तौर पर यह हमारा फ़र्ज़ है कि हम किसी शोर के साथ बहने की जगह किसी रचना को उसकी गहराई में जांचें। मैं कविताएं खूब पढ़ता हूं- राजनीतिक कविताएं भी, लेकिन वे मुझे तभी अच्छी लगती हैं जब मैं पाता हूं कि वे मुझे कुछ और संवेदनशील बना रही हैं या मेरी समझ में कुछ जोड़ रही हैं। मिसाल के तौर पर इमैनुएल ओर्तिज़ की कविता ‘अ मोमेंट ऑफ साइलेंस’ मैं अपने कई युवा साथियों को पढ़वाता हूं- फिर यह समझते हुए कि अपनी तरह की कुछ सपाटबयानियों के बावजूद वह कविता अन्याय और अत्याचार के एक बड़े संदर्भ को समझने में हमारी मदद करती है।

गुंटर ग्रास- दुर्भाग्य से- अपनी इस कविता में मेरी ऐसी कोई मदद नहीं करते- रंजीत वर्मा की करते हों तो करते हों। मेरे लिए वह एक राजनीतिक बयान है, बेशक ज़रूरी- जो मैं पहले भी लिख चुका हूं- लेकिन सिर्फ इस वजह से कि उस कविता से दुनिया में एक राजनीतिक बहस सी छिड़ी है, मैं कविता की अपनी समझ बदलने को तैयार नहीं हूं। कविता में कला हो या राजनीति- वह सहज और सच्ची होनी चाहिए। दिखावटी कला हो या दिखावटी राजनीति- दोनों एक जैसे बेमानी होते हैं।

इसलिए जब कोई लेखक मुकेश अंबानी, ऐंटीलिया, बढ़ती विषमता और गरीबी का हवाला देकर अपना लेख या अपनी कविता शुरू करता है तो मैं क्रांतिकारिता को बहुत संदेह से देखता हूं- ऐसी सपाट और सरलीकृत आलोचनाएं सबसे आसान काम हैं जिसमें बस इतना भर जोखिम रहता है कि कोई संपादक इन्हें बेकार या वाहियात पंक्तियां मानकर लेख से काट न दे। रंजीत वर्मा के साथ बस इतनी ही दुर्घटना हुई है। यहां मैं ऐसी ‘क्रांतिकारी’ या ‘प्रगतिशील’ मुद्रा वाले उन लेखों और लेखकों की याद नहीं दिलाऊंगा, जिन्होंने जीवन का प्रथम अवसर आते ही उन संस्थानों में नौकरियां चुनीं या लिखने का काम किया जिनकी वे तब या अब आलोचना किया करते थे या करते हैं। मैं यह याद दिलाकर भी वक़्त बरबाद नहीं करूंगा कि जिन राजनीतिक व्यवस्थाओं की विरुदावली गा-गाकर हमारे बहुत सारे कवियों की क्रांतिकारिता जवान हुई, वे अपने चरित्र में कितनी भयावह और अमानवीय साबित हुईं। ख़तरा यही है कि जब आप ऐसा कुछ करते हैं तो अचानक इसके समांतर खड़ी उस दूसरी प्रवृत्ति का समर्थन करने लगते हैं जिसे ठीक से न समझ पाते हुए रंजीत वर्मा कलावाद की श्रेणी में डाल देते हैं और जो अपनी परिणति में उतनी ही ठंडी, बेजान और मनुष्य विरोधी साबित होती है।
दरअसल कहना मैं सिर्फ इतना चाहता हूं कि हम कई तरह की क्षत-विक्षत सच्चाइयों से घिरे एक ऐसे समय में रह रहे हैं जिसमें पक्ष-विपक्ष चुनने से पहले, किसी रचना को श्रेष्ठ या कमतर बताने से पहले, हमें अपनी कसौटियां तय करनी होंगी। निजी तौर पर मैं अपने लिए ऐसी कसौटियां बनाता हूं और तमाम तरह की आवाज़ों और रंगतों वाले कवियों-लेखकों को पढ़ता हूं। जो सराहे जाने लायक लगते हैं, उन्हें सराहता हूं। गुंटर ग्रास नहीं लगे तो इसमें आप साज़िश देख लें।

जहां तक भास्कर के क्रोनी संपादन का सवाल है, शायद अभिषेक श्रीवास्तव का इशारा इस तथ्य की ओर है कि वहां विमल झा मेरे मित्र हैं जो इन दिनों ओपेड देखा करते हैं। विमल झा से बिल्कुल पारिवारिक मैत्री के बावजूद मैं ठीक-ठीक यह नहीं जानता कि वहां वे किस पद पर हैं। भास्कर में- चाहे जिसके दबाव में या चाहे जिस प्राथमिकता के तहत- छपने वाले लेखों का जो स्तर होता है, उससे मैं आम तौर पर हताश रहता हूं और यह हताशा हल्के ढंग से मैंने अपने मित्र के साथ भी साझा की है। रंजीत वर्मा के लेख में जो संपादन उन्होंने किया, उसमें मेरा ज़िक्र उन्होंने किसी मैत्री के तहत काटा, यह बात मेरी समझ में कतई नहीं आती। उल्टे मुझे लगा कि उन्होंने मेरे साथ अन्याय किया।

लेकिन मैं यह स्पष्ट कर दूं कि अगर रंजीत वर्मा ने ऐसे ही शीर्षक से और इसी उलझे हुए अंदाज़ में यह मूल लेख भास्कर को भेजा तो उसका संपादन उचित था। पेशेवर पत्रकारिता की अपनी कसौटियां होती हैं, उन कसौटियों पर यह लेख कतई खरा नहीं उतरता। पता नहीं, रंजीत वर्मा ने यह निष्कर्ष कैसे निकाल लिया कि मेरे मुताबिक राजनीतिक कविताओं पर किसी भी सूरत में बहस की ज़रूरत नहीं है। ज़रूरत थी, तभी मैंने की- और ग्रास की कविता के संदर्भ में की। मैं नहीं जानता हूं कि रंजीत वर्मा कितनी कविताएं पढ़ते हैं, लेकिन मैं लेखक जैसा भी होऊं, पाठक कायदे का हूं और अपनी स्मृति भर से जितनी राजनीतिक कविताएं उन्हें सुना सकता हूं, उतनी शायद कम लोग सुना पाएं।

दरअसल यह साजिश का मामला भी दिलचस्प है। हिंदी की दुनिया में क्रांति करने निकले लेखक पहले साज़िश खोजते हैं। उनके मुताबिक नागार्जुन और अज्ञेय का नाम एक साथ लिया जाना भी साज़िश है, और सिर्फ इत्तिफाक से लगभग एक ही समय दो अलग-अलग अखबारों में गुंटर ग्रास पर दो टिप्पणियां छप जाना भी साज़िश है। यह खोखलापन रंजीत वर्मा के मूल लेख में इतना प्रत्यक्ष है कि उसे पढ़कर न गुस्सा आता है न अफसोस जागता है- हंसी तक नहीं आती।

यह लेख सफाई देने के लिए नहीं लिखा है- हालांकि जब लिखा ही है तो अपने-आप सफाई चली आती है। वैसे अपनी आलोचना मुझे इतनी नहीं चुभती। यह लेख इसीलिए लिखा कि लिखने की इच्छा हुई। ब्लॉग पर सक्रिय कई युवा लेखकों का- बेशक, उनमें अभिषेक श्रीवास्तव भी हैं- उत्साह मुझे प्रीतिकर लगता है- शायद लेखक होने के नाते यह इच्छा भी होती हो कि गलत न समझा जाऊं। फिर यह भी इच्छा होती है कि इन युवा मित्रों का उत्साह किसी ठोस और सार्थक संवाद में बदले- बस मुट्ठी उछाल मुद्राओं की मिसाल होकर न रह जाए- जिसका ख़तरा अभी दिख रहाहै।

हिंदुस्तान में एक तरफ ऐंटीलिया बन रहा है और दूसरी ओर करोड़ों लोग उजाडे जा रहे हैं, यह करुण सच्चाई बहुत स्पष्ट है। जो व्यवस्था यह अमानुषिक विषमता पैदा करती है, उससे लड़ने की ज़रूरत है और कुछ मुट्ठी भर लोग यह लडाई लड़ भी रहे हैं। मैं नहीं जानता कि मुझे राहत है या अफसोस कि मैं ऐसी लड़ाई में शामिल नहीं हूं। जो लोग शरीक हैं, उन्हें सलाम करता हूं, उनके साथ खड़ा होने की कोशिश करता हूं। लेकिन ऐंटीलिया के बनने को हथियार बनाकर और करोड़ों लोगों के विस्थापन को ढाल बनाकर वार करने वाले लोग दरअसल हिंदी साहित्य और पत्रकारिता की टुच्ची राजनीति भर कर रहे हैं, इससे ज़्यादा कुछ नहीं। इस टुच्ची राजनीति में दोस्तियों और दुश्मनियों के पुराने हिसाब चुकता करने की चाह ज़्यादा होती है, चीज़ों को बदलने और समझने का सरोकार कम। दुर्भाग्य से, जब वे ऐसा करते हैं तो उन्हें नहीं पता होता कि वे इस भयावह सच्चाई को भी छोटा कर रहे होते हैं और उसके ख़िलाफ़ चल रही लड़ाई को भी।

हिंदी के युवा ब्लॉगरों को ऐसी नकली मुद्राओं से सावधान रहने की ज़रूरत है। यह मेरा पक्ष है- इसे रखकर मैं ख़ुद को इस बहस से अलग कर रहा हूं।

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2 Comments on “दिखावटी राजनीति से सावधान: प्रियदर्शन”

  1. किसी संपादक को विचार संपादित करने का अधिकार नहीं होता. इससे बेहतर यह कि लेख ही वापस कर दिया जाय.

  2. अशोक भाई, यह अधिकार तो संपादक जबरिया अपने हाथ में लेता है। प्रभात रंजन जी जब जनसत्‍ता में थे, उस वक्‍त मैं खुद उनके इस अनधिकार चेष्‍टा का शिकार बन चुका हूं। क्‍या करेंगे, किस किस को समझाएंगे।

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