मजदूर संकट के इस ऐतिहासिक दौर में केंद्रीय श्रम मंत्री की गुमनामी का सबब क्या है?


‘क्या आप जानते हैं भारत के लेबर मिनिस्टर कौन हैं?’ यह सवाल मेरे एक मित्र ने फ़ेसबुक पर पोस्ट डालकर पूछा. वर्षो से मैं पत्रकार रहा हूं. ख़बरों पर थोड़ी बहुत नज़र तो रहती ही है, मगर फिर भी कुछ देर के लिए मैं ‘ब्लैंक’ हो गया.

फिर दिमाग़ पर ख़ूब ज़ोर दिया. केंद्र की नरेन्द्र मोदी सरकार में श्रम मंत्री कौन है? बार बार मैं यह बुदबुदा रहा था. फिर दिमाग़ में कुछ तस्वीरें दौड़ने लगीं. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदीजी रोज़ टीवी पर आते ही हैं. गृहमंत्री अमित शाह का बयान अकसर छपता रहता है. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण आजकल ‘स्पेशल पैकेज’ का विवरण देने के लिए ख़बरों में हैं. रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ज़रूर कुछ समय से पीछे चले गये हैं, फिर भी रक्षा मामलों को लेकर उनके कुछ ‘स्टेटमेंट’ अख़बारों में आते ही रहते हैं. कोरोना में स्वास्थ मंत्री डॉ. हर्षवर्धन और रेल मंत्री पियूष गोयल भी सुर्ख़ियां बंटोर रहे हैं. इनमें से कोई भी लेबर मिनिस्टर नहीं है.

जब कभी मुसलमानों पर हमले बढ़ जाते हैं और देश-विदेश में भारत की बदनामी होने लगती है, तो केन्द्रीय अल्पसंख्यक मंत्री मुख़्तार अब्बास नक़वी इन “दुष्प्रचारों” को रद्द करने के लिए प्रकट हो ही जाते हैं और विरोधियों पर कुछ यूं टूट पड़ते हैं: “कौन कहता है कि देश मुसलमानों के लिए सुरक्षित नहीं है?” फिर ज़ोर देते हुए वे कहते हैं कि कि “भारत दरअसल मुसलमानों के लिए “जन्नत” है. राहुल गांधी पर शब्दों के तीर चलाने के लिए महिला और बाल कल्याण मंत्री स्मृति ईरानी भी कैमरे के सामने रूबरू होती ही रहती हैं. मगर देश के लेबर मिनिस्टर कौन हैं, यह बात मेरे दिमाग़ में आ ही नहीं रही थी.

थक-हार कर मैंने गूगल महाराज की शरण ली. सर्च किया “हू इज़ लेबर मिनिस्टर आफ इंडिया”. फिर गूगल महाराज ने अन्धकार मिटा दिया. मुझे यह पढ़ कर ज्ञान का अनुभव हुआ कि संतोष गंगवार केंद्रीय राज्य श्रम मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) हैं.

थोड़ी देर और ठहर कर विकिपीडिया महाराज से भी इल्म हासिल किया. फिर मालूम हुआ कि 1 नवम्बर 1948 को पैदा हुए संतोष गंगवार भारतीय राजनेता हैं. वे सोलहवीं लोकसभा में भारतीय जनता पार्टी के बैनर से सांसद चुन कर आये हैं. वे 2009-14 लोकसभा को छोड़कर, 1989 से लगातार उत्तर प्रदेश के बरेली लोकसभा क्षेत्र से निर्वाचित होते रहे हैं. इससे पहले वह वस्त्र मंत्री और वित्त राज्य मंत्री भी रह चुके हैं.

गंगवार साहेब के राजनीतिक सफ़र पर एक नज़र डालकर यह बात तो ज़ाहिर हो गयी कि वे बीजेपी के मंजे हुए पुराने नेता हैं. अगर देखा जाय तो संसद में उनका अनुभव ख़ुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से कहीं ज़्यादा है.

फिर हैरानी इस बात की है कि वे ख़बरों से ग़ायब क्यों हैं. वह भी उस वक़्त में जब देशभर में करोड़ों श्रमिक कोरोना से ज़्यादा भूख से तड़प रहे हैं. उन पर वायरस से कहीं ज्यादा चोट पुलिस के डंडे कर रहे हैं. उनकी ज़िन्दगी को ‘वेंटिलेटर’ पर लाने का श्रेय कोविड-19 से कहीं ज़्यादा सरकार की श्रमिक-विरोधी नीति को जाता है.

लॉकडाउन के बाद रोज़गार बंद होते ही मज़दूरों की थाली से रोटी छिन गयी. मकान मालिकों ने उन्हें घर से बेघर कर दिया. वे बे-यार और मददगार पैदल ही अपने अपने वतन निकल पड़े. सफ़र हजारों मील का था. कुछ ख़ुशनसीब प्रवासी मज़दूर अपने घर पहुंच पा रहे हैं. कुछ रास्ते में ट्रेन से कटकर मर जा रहे हैं. कुछ दूसरे थकान से गश खाकर मौत की नींद सो जा रहे हैं. इस आफ़त में केन्द्रीय श्रम मंत्री की गैरमौजूदगी बहुत कुछ कहती है.

अगर आप संतोष गंगवार के ‘ऑफिशियल ट्विटर’ पेज पर जाएंगे तो आपको हैरानी होगी कि उनके ‘फॉलोवर’ की तादाद सिर्फ 80 हज़ार है. वहीं दिल्ली विधानसभा चुनाव में हारे कपिल मिश्र के 837 हज़ार फॉलोवर हैं.

मैं इस बात की वज़ाहत करना चाहूँगा कि सोशल मीडिया पर ज्यादा ‘पॉपुलर’ होना किसी बड़े नेता की पहचान नहीं है. बहुत सारे ऐसे भी लोग हैं जो ज़मीन पर ख़ामोशी से काम कर रहे हैं और वे सोशल मीडिया से दूर ही रहते हैं. फिर भी यह तुलना कुछ न कुछ तो ज़रूर ही इशारा करती है.

कोरोना संकट के दौरान गंगवार साहेब के ज़्यादातर ट्विटर पोस्ट ‘रीट्वीट’ हैं. जो पोस्ट उन्होंने श्रमिकों से सम्बंधित डाले भी हैं, उनमें कोई जान नहीं दिखता. न ही उनमें उनकी ख़ुद की कोई बड़ी पहल दिखती है.

मिसाल के तौर पर 16 मई के ट्वीट में उन्होंने ‘स्पेशल पैकेज’ की सिर्फ तारीफ़ कर अपनी ज़िम्मेदारी पूरी होती समझ लीः “श्रमिक भाई और बहनों को आर्थिक लाभ के साथ ही उनके स्वास्थ्य हित में भी सरकार द्वारा उठाये जा रहे क़दम राष्ट्रनिर्माण में एक अहम् भूमिका निभाएंगे”.

गौर कीजिए कि उपर्युक्त पोस्ट में गंगवार साहेब ने भले ही मजदूरों को संबोधित किया है मगर उनके नज़दीक प्रथम हित मज़दूर की जान से ज्यादा राष्ट्रनिर्माण का है. उनके ट्वीट में मज़दूरों को राहत देने के नाम पर सिर्फ खानापूर्ति की गयी है. उनके किसी भी पोस्ट को पढ़कर मजदूरों की त्रासदी का दर्द महसूस नहीं होता. आखिर वे ऐसा करने से क्यों चूक गये?

दरअसल, हिंदुत्ववादी ताकतों की विचारधारा में राष्ट्र और पूंजी का हित सर्वोपरि होता है. मज़दूर की बात करना उनके लिए सिर्फ “लिप सर्विस” है. इन ताक़तों से जुड़ी हुई ट्रेड यूनियन ‘भारतीय मज़दूर संघ’, जो वर्ष 1955 से कार्यरत है, इसी तर्ज़ पर काम करती है.

विडंबना देखिए कि आज यह ट्रेड यूनियन देश में एक बड़ा संगठन बन कर उभरी है. एक अनुमान के मुताबिक इसके पास 10 मिलियन सदस्य हैं. अभी हाल में इसने बीजेपी सरकारों के ज़रिये श्रम कानून को रद्द किये जाने और काम करने की अवधि को 8 घंटे से 12 घंटे तक बढ़ाये जाने के विरोध में एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की है. यह भी ज़बानी जमाख़र्च करने से ज़्यादा कुछ नहीं है.

ज़ाहिर है, हिंदुत्व की सरकार में लेबर मिनिस्टर होना बिना ‘पंख का परिंदा’ होने के समान है. सरकार पूंजी को आकर्षित करने के लिए मज़दूरों की बलि देने को तैयार है. इस हालत में संतोष गंगवार अगर चाहें भी तो कुछ ज़्यादा नहीं कर सकते. शायद यही सबब उनकी गुमनामी का है.


अभय कुमार जेएनयू से पीएचडी हैं. इनकी दिलचस्पी माइनॉरिटी और सोशल जस्टिस से जुड़े सवालों में हैं. आप अपनी राय इन्हें debatingissues@gmail.com पर भेज सकते हैं.


6 Comments on “मजदूर संकट के इस ऐतिहासिक दौर में केंद्रीय श्रम मंत्री की गुमनामी का सबब क्या है?”

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