भारत का संविधान कमजोर से कमजोर आदमी के साथ खड़ा होने का दावा करता है जबकि युनिवर्सिटी और उसके कर्त्ताधर्ता सबको लाठी लेकर भगाते रहते हैं। ताजा कड़ी इलाहाबाद विश्वविद्यालय का एक फैसला है।
पहले कहा गया था कि असिस्टेंट प्रोफेसर के लिए एक क्वालीफाईंग परीक्षा होगी। इसके बाद इन्टरव्यू होगा। इसका सामान्य छात्रों ने स्वागत किया था। इससे यूनिवर्सिटी के दुलरुवा छात्र घबरा गए कि भला हम कैसे परीक्षा पास कर पाएंगे! बिना किसी कारण के अब असिस्टेंट प्रोफ़ेसर की एक पोस्ट लिए मात्र आठ कैंडिडेट को बुलाने का निर्णय ले लिया गया और विश्वविद्यालय के किसी प्रोफेसर ने विरोध तक नहीं किया।
यह सब उसी भारत देश में हो रहा है जिसमें भारी संख्या में पीएचडी नौजवान बेरोजगार हैं। उन्हें कम से कम इंटरव्यू में बुलाया जाना चाहिए। इससे एक बड़े और विविध टैलेंट पूल से असिस्टेंट प्रोफ़ेसर चुने जाने का अवसर खुल सकता।
भारत सरकार की 2018 की यूजीसी गाइडलाइन के अनुसार असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के लिए स्क्रीनिंग होती है] लेकिन स्क्रीनिंग से पहले ही आठ लोगों को बुलाने का फैसला विचित्र है। अभी तो पता ही नहीं कितने लोग इसमें आवेदन करेंगे। कोई भी परीक्षा ज़्यादा से ज्यादा लोगों को भाग लेने का अवसर होनी चाहिए लेकिन विश्वविद्यालय केवल आठ लोगों को बुलाने से अधिकांश लोग चयन प्रक्रिया से ही बाहर हो जाते हैं। इस मनमाने आदेश से केवल वे ही प्रत्याशी इंटरव्यू दे पाएंगे जिनके बहुत ही उच्च प्रतिशत अंक होंगे।
इससे ग्रामीण पृष्ठभूमि के अभ्यर्थी स्वत: बाहर हो जाएंगे। इससे ‘सामान्य सीटों’ के लिए अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के कैंडिडेट्स पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। स्नातक-परास्नातक लेवल पर उनके अंक कम होने से उनकी दावेदारी अपने आप समाप्त हो जाएगी। इस तरह से यह आदेश सामाजिक न्याय का गला घोंटने वाला साबित होगा। इसका असर उन छात्र-छात्राओं पर भी पड़ेगा जो अनारक्षित श्रेणी से आते हैं, लेकिन शहरी छात्रों से थोड़ा सा पीछे होते हैं।
उधर हमारे प्रधानमंत्री जी ‘सबका साथ सबका विकास’ का नारा दे रहे हैं। राजनीतिक रूप से विश्वविद्यालय का यह कदम भाजपा के लिए मुसीबत का सबब बन सकता है। सामान्य पृष्ठभूमि से आने वाले पहली पीढ़ी के सामान्य और गरीब अनारक्षित उम्मीदवार इस आदेश से विश्वविद्यालय में पढ़ाने से वंचित हो जाएंगे। इस आदेश से उत्कृष्ट पीएचडी करने वाले, बेहतर रिसर्च पेपर लिखने वाले उन अभ्यर्थियों का नुकसान होगा जिनके अंक परास्नातक और स्नातक स्तर पर 60 प्रतिशत से कम हैं। जेएनयू या किसी अच्छी जगह का नौजवान भला इसमें कैसे जगह पाएगा जबकि किसी स्थानीय कॉलेज से 80-80 प्रतिशत अंक पाने वाला छात्र शोध और रिसर्च पेपर में बहुत पीछे हो सकता है।
यही बात दूसरी तरफ से कही जा सकती है कि कम अंक पाने वाला छात्र अच्छे से शोध कर सकता है। यह आदेश उन ढेर सारी कीलों में से एक कील है जो भारत के शैक्षणिक परिसरों में ठोंकी जा रही है।
(एक पाठक द्वारा भेजी गयी टिप्पणी)