आदिवासियों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय के लिए राज्य की क्षमायाचना का वक्त कब आएगा?


कुछ समय पूर्व पोप फ्रांसिस ने डेढ़ लाख से भी अधिक मूलनिवासियों को जबरन उनके घरों और सांस्कृतिक परिवेश से दूर रखे जाने के लिए क्षमायाचना की थी। तब कनाडा की सरकार ने यह स्वीकारा था कि वहां 19वीं शताब्दी से 1970 के दशक तक संचालित सरकारी वित्त-पोषित ईसाई स्कूलों में इन मूलनिवासियों का जमकर शारीरिक और यौन शोषण हुआ था और बड़ी संख्या में इनकी मौतें भी हुईं, जिन्हें लंबे समय तक छुपा कर रखा गया। आदिवासियों पर किये गये अत्याचार के लिए ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और अमेरि‍का की सरकारें माफी मांग चुकी हैं। ताइवान की राष्ट्रपति साई इंग वेन ने भी 2016 में वहां के मूलनिवासियों से क्षमायाचना की थी।

उन्‍होंने कहा था, “पिछले 400 वर्षों में ताइवान में जिसका भी शासन रहा है उसने मूलनिवासियों के अधिकारों का खूब हनन किया है। इन पर सशस्त्र आक्रमण किये गये हैं और इनकी जमीन छीनी गयी है। मैं सरकार की ओर से इन मूलनिवासियों से क्षमायाचना करती हूं।”

भारत में आज भले ही राष्‍ट्रपति एक आदिवासी महिला को बनाया गया है, लेकिन यहां के आदिवासी अब भी इतने सौभाग्यशाली नहीं हुए हैं कि यहाँ की राज्यसत्ता इनसे क्षमा मांग ले।

हमारा संविधान आदिवासियों की अलग पहचान को स्वीकारता है। जनगणना में इन्हें उपजातिवार अंकित किया जाता है। हिन्दू विवाह अधिनियम और हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम आदिवासियों पर लागू नहीं होते। इन मूलनिवासियों के रहवास के भौगोलिक क्षेत्रों को चिह्नित कर के इन्हें जनजातीय क्षेत्रों की संज्ञा दी गयी है और इनके लिए पांचवीं और छठी अनुसूची के माध्यम से अलग प्रशासनिक व्यवस्था भी की गयी है जिससे आदिवासियों की पारंपरिक विरासत एवं प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण हो सके। संविधान की इसी भावना के आधार पर पेसा एक्ट जैसे कानून कालांतर में बनाए गए, जिन्‍हें आज केंद्र सरकार ने पूरी तरह निष्‍प्रभावी बना दिया है।

आदिवासियों का आवास वे वनक्षेत्र हैं जिनके नीचे कोयला, माइका और बॉक्साइट आदि के भंडार हैं। इनके दोहन पर पूंजीपतियों की नजर है। कॉरपोरेट के मार्ग में बाधक बने आदिवासियों को उनके रास्ते से हटाने के लिए सत्‍ता द्वारा संवैधानिक प्रावधानों को बेमानी बनाकर आदिवासियों के हितों की रक्षा करने वाले कानूनों में सेंध लगाने की प्रक्रिया चल रही है। दूसरी ओर आदिवासियों के धार्मिक ध्रुवीकरण ने व्यापक आदिवासी एकता की संभावना को समाप्त कर दिया है। धर्म के आधार पर मतदान करने वाला आदिवासी समुदाय राजनीतिक दलों को पसंद है क्योंकि इस तरह वे भावनात्मक मुद्दों को हवा देकर आदिवासियों की बुनियादी समस्याओं से किनारा कर सकते हैं। आदिवासियों को धर्म का शिकार बनाकर कॉरपोरेट लूट निर्बाध रूप से की जा सकती है।

आदिवासियों के हितों के लिए कार्य करने वाले संगठन यह ध्यानाकर्षण करते हैं कि पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत आने वाले एक बड़े क्षेत्र को हिंसाग्रस्त बताकर यहां आदिवासियों के अधिकारों को स्थगित रखा गया है। क्या यह महज संयोग है कि इन्हीं क्षेत्रों में बड़े कॉरपोरेट घरानों की महत्वाकांक्षी परियोजनाएं संचालित हैं? नक्सलवाद के आर्थिक-सामाजिक पहलुओं से इतर एक प्रश्न जो बार-बार हमारे सम्मुख उपस्थित होता है वह यह है कि क्या नक्सलवाद राजनीतिक दलों के राजनीतिक-आर्थिक हितों की सिद्धि में भी कोई योगदान देता है? इसका समाधान न हो पाने का मुख्य कारण क्‍या राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव है? समस्या के कारण जो भी हों, परिणाम तो एक ही होता है- आदिवासियों का दमन। चाहे वह पुलिस की हो या नक्सलियों की हो, गोली खाकर मरने वाला कोई मासूम आदिवासी ही होता है।

आदिवासी अस्मिता पर प्रहार करने वाली नीतियों के खिलाफ आवाज़ उठाती कविता

दूसरी ओर धर्म प्रचार की आधुनिक रणनीतियां सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक प्रशिक्षण और प्रयोगों का अवलंबन लेती हैं। कभी धर्म प्रचारक सेवक, शिक्षक अथवा चिकित्सक का बहुरूप धर कर आता है और इन आदिवासियों को सशर्त सुविधाएं और राहत प्रदान कर उनका विश्वास अर्जित करने की कोशिश करता है। वह उन्हें उनके अंधविश्वासों से मुक्ति दिलाते-दिलाते अपने धर्म के अंधविश्वासों के भंवर में फंसा देता है। कभी वह दानदाता का स्वांग भरता है और रोटी, कपड़ा, मकान जैसी बुनियादी जरूरतों की पूर्ति कर उन्हें आभारी और कृतज्ञ बना देता है, फिर धीरे से जब वह अपने धर्म को अपनाने का प्रस्ताव रखता है तो मिलने वाला उत्तर सकारात्मक ही होता है।

धर्म प्रचार की दूसरी रणनीति बल प्रयोग, सामाजिक दबाव तथा छल-कपट पर आधारित होती है। विश्व के अनेक देशों में तलवार के जोर पर धर्म परिवर्तन के लंबे इतिहास की भयानकता से हम सभी अवगत हैं। अपना धर्म न स्वीकारने अथवा इसे त्याग कर दूसरा धर्म अपनाने पर सामाजिक बहिष्कार की धमकी और भयादोहन भी धर्म प्रचारकों के तरकश के अचूक तीर हैं।

हर किस्‍म के धर्म प्रचारक प्रकृतिपूजक आदिवासियों के पारंपरिक धर्म और विश्वासों को खारिज करते हैं, उन्हें हीन और त्याज्य बताते हैं और अपने धर्म को उन पर थोपते हैं। इसके लिए वे प्रायः उनकी लोकभाषा, लोकसंगीत और लोकसाहित्य में विद्यमान मिथकों एवं प्रतीकों को बहुत धूर्ततापूर्वक अपने धर्म के अनुकूल बना लेते हैं।

सत्ता का संरक्षण मिलने पर ऐसे धर्म प्रचारक बेखौफ और निडर हो जाते हैं।

अंग्रेजों के शासनकाल में ईसाई मिशनरियों ने आदिवासी इलाकों में अपनी पैठ बनायी थी। अब हिंदुत्ववादी संगठन सत्ता का संरक्षण पाकर नयी ऊर्जा के साथ आदिवासियों के हिंदूकरण के अभियान में जुट गए हैं। ईसाई मिशनरियों की तुलना में हिंदुत्व के प्रचारक अधिक आक्रामक, हिंसक और प्रतिशोधी हैं।

हिंदुत्व के प्रचारकों को यह संवैधानिक व्यवस्था मंजूर नहीं है। वे आदिवासी शब्द को बड़ी चतुराई से वनवासी शब्द द्वारा प्रतिस्थापित कर देते हैं। आदिवासियों के अधिकारों के लिए कार्य करने वाले अनेक संगठन वनवासी शब्द पर गहरी आपत्ति दर्ज करा चुके हैं क्‍योंकि आदिवासियों की अपनी भाषा, संस्कृति और धार्मिक परंपराएं हैं जो हिन्दू धर्म से भिन्न हैं। आदिवासी प्रकृति पूजक हैं और इनकी धार्मिक परंपराएं, पूजन विधि, धार्मिक उत्सव आदि सभी अविभाज्य रूप से प्रकृति से संबंधित हैं। आदिवासियों के विविध संस्कार जैसे जन्मोत्सव, अंतिम क्रिया, श्राद्ध तथा विवाह आदि की भिन्नता और विशिष्टता सहज स्पष्ट है। आदिवासी हिन्दू समाज की वर्ण व्यवस्था एवं दहेज आदि अनेक कुरीतियों से सर्वथा मुक्त हैं। आदिवासी स्वर्ग एवं नरक की अवधारणा पर विश्वास नहीं करते। वे अपने मृत पूर्वजों की आत्माओं को अपने सन्निकट अनुभव करते हैं। इनकी अपनी न्याय प्रणाली एवं विधि व्यवस्था भी है।

ऐसे में यदि हिंदुत्ववादी शक्तियां आदिवासी शब्द को स्वीकार कर लेंगी तो उनका यह दावा अपने आप खंडित हो जाएगा कि वैदिक सभ्यता की स्थापना करने वाले आर्य भारत के मूलनिवासी हैं। इसीलिए आदिवासियों को हिन्दू धर्म के अधीन लाने के लिए एक संगठित अभियान चल रहा है। यह अभियान वनवासी कल्याण आश्रम, एकल विद्यालय, सेवा भारती, विवेकानंद केंद्र, भारत कल्याण प्रतिष्ठान तथा फ्रेंड्स ऑफ ट्राइबल सोसाइटी आदि अनेक संगठनों द्वारा संचालित है। ये सभी संगठन आरएसएस और विश्‍व हिंदू परिषद से सम्‍बद्ध हैं और इन्‍हें अंतरराष्‍ट्रीय हिंदूवादी नेटवर्कों से पैसा मिलता है।

हिंदुत्ववादी संगठनों द्वारा अपनायी जाने वाली धर्म-प्रचार की विधियां ईसाई मिशनरियों से उधार ली हई हैं। ईसाई मिशनरी जिस प्रकार धर्म प्रचार के लिए आदिवासी युवाओं को प्रशिक्षित करती हैं उसी प्रकार सेवा भारती रामकथा के प्रसार के लिए आदिवासी युवक-युवतियों हेतु अयोध्या में आठ माह का प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाती है। इसी तरह एकल विद्यालय भी सेवा-शिक्षा-सहयोग के बहाने हिन्दू धर्म के प्रचार की वैसी ही विधि अपनाता है जैसी ईसाई धर्म प्रचारक पहले अपना चुके हैं।

इन संगठनों द्वारा संचालित विद्यालयों में दी जाने वाली शिक्षा न केवल ईसाई अल्पसंख्यकों बल्कि मुस्लिम अल्पसंख्यकों के प्रति भी आदिवासियों के मन में संदेह और घृणा उत्पन्न करने में योगदान देती है। जैसे-जैसे यह प्रचार अपनी जड़ें जमाने लगता है वैसे-वैसे आदिवासी बहुल इलाकों में धार्मिक और साम्प्रदायिक टकराव की स्थितियां उत्पन्न होने लगती हैं। साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की कामयाबी में योगदान देता है।

आने वाले वर्षों में जब संकीर्ण राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के पैरोकार इन मासूम आदिवासियों के मन में ईसाई और मुस्लिम अल्पसंख्यकों के प्रति नफरत का जहर भरने में कामयाब हो जाएंगे तब हम साम्प्रदायिकता और हिंसा के नये ठिकानों को रूपाकार लेता देखेंगे। हिन्दू-ईसाई और हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष के इन नये केंद्रों में आदिवासियों को हिंसा एवं नकारात्मकता की अग्नि में झोंक दिया जाएगा।

समय रहते इस देश के आदिवासियों को अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़नी होगी। आदिवासी का अस्तित्‍व धरती पर मासूमियत को बचाए रखने के लिए जरूरी है।


लेखक छत्तीसगढ़ के रायगढ़ स्थित स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


About डॉ. राजू पाण्डेय

View all posts by डॉ. राजू पाण्डेय →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *