चुनावीबिहार-1: भाजपा के एप्‍पल और ब्‍लूटूथ में फंसी संघ की धोती


कभी उन दोनों ने एक साथ अपनी राजनीतिक यात्रा शुरू की थी। 1974-75 में जब इंदिरा गांधी की तानाशाही के खिलाफ जयप्रकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति का नारा दिया, तो दोनों भाई पटना यूनिवर्सिटी की यूनियन में साथ थे। समाजवादी आंदोलन के नाम पर 1990 तक साथ रहे। फिर, जब बड़ा भाई लालू प्रसाद मुख्यमंत्री बना और उसके बाद बिहार को जंगलराज का पर्याय मान लिया या बना दिया गया, तो छोटा भाई नीतीश कुमार उनकी चूलें उखाड़ने पर आमादा हो गया।

नीतीश कुमार की पूरी राजनीति लगभग दो दशकों तक एक ही धुरी पर टिकी रही- लालू विरोध। यहां तक कि वह संघियों की गोद में भी जाकर बैठ गये और आखिरकार उनकी मदद से 2005 में लालू को उखाड़ कर ही माने। इस बीच बहुत सारा नाला पटना की गंगा में बहा और गाद बनकर बैठ गया। राजनीतिक आकाश पर इसी बीच नरेंद्र मोदी नामक धूमकेतु उभरा, जिसने सभी नक्षत्रिकाओं को लील लिया। नीतीश के सलाहकारों ने उनके दिमाग में बिठा दिया कि शाहे-तुरुप का अगर कोई तोड़ हैं, तो वही हैं, वही हैं और वही हैं।

करवट बदली। दो दशक बाद बड़े भाई-छोटे भाई का पिछले विधानसभा चुनाव में मिलन हुआ। उसके पहले अचानक से नीतीश कुमार का मोदी के साथ भोजन को टालना वगैरह तो खैर बीती बात ही हुई।

लगभग डेढ़-दो साल सब ठीक चला कि नीतीश को यह बात खुद समझ में आ गयी कि वह अगर लालू का साथ नहीं छोड़ते हैं, तो प्रदेश में भी नहीं बचेंगे (कांग्रेस को जिस तरह यादव क्षत्रप ने कब्रगाह तक पहुंचाया, वह देखने की नहीं, गुनने की बात थी)। फिर देश का सर्वोच्च पद तो अभी एकाध दशक तक मोदी नाम के करिश्मे के लिए रिजर्व था ही। आरक्षण की ही खाने वाले नीतीश को यह समझ आते ही चंदन और भुजंग वाला दोहा भी याद आया, उनके सच्चे डेप्यूटी सुशील मोदी को लालू परिवार के घोटाले भी याद आये और अच्छा-भला गठबंधन अचानक से अंतरात्मा के जागने की वजह से खतरे में आ गया।

बहरहाल, यह क्षेपक था। लंबी कथा कहनी है, इसलिए भूमिका भी लंबी दे दी। दोनों भाइयों में एक समानता और थी। जहां मोदी से दोनों को एक समान समस्या थी, वहीं दोनों को सोशल मीडिया भी समझ नहीं आता था और दोनों ही उसको लगभग बेवकूफी मानते थे। आज हालांकि क्या स्थिति है, यह ज़रा देख लें।

लालू परिवार के सबसे पढ़े-लिखे, किंतु सजाशुदा, जेलयाफ्ता लालू यादव से लेकर अंगूठाछाप राबड़ी औऱ आठवीं फेल प्रिंस तेजस्वी तक सभी ट्विटर और फेसबुक पर सक्रिय हैं। फेसबुक पर कम, ट्विटर पर अधिक, जो कि एलीट है, Suave है, अंग्रेजीदां है और बिहार में बेहद कम लोकप्रिय है। यहां अब भी फेसबुक का जलवा है, जो रस्टिक है, खुला है और देसी है। जी हां, देसीकरण हो चुका है फेसबुक का।

अब, हम अपनी कथा शुरू कर सकते हैं।

बड़े भाई के पीछे भला छोटे भाई कब तक रहते? अभी पिछले हफ्ते 7 तारीख को उन्हीं नीतीश कुमार ने लाइव कांफ्रेंस पूरे तामझाम के साथ की, जिन्होंने कभी सोशल मीडिया को चोंचलेबाजी कहकर खारिज़ कर दिया था। यह दीगर बात है कि सुशासन कुमार की लाइव कांफ्रेंस की हालत ‘सड़क 2’ वाली हो गयी, यानी लाइव जाने के कुछ ही समय बाद 578 या 279 लाइक्स के मुकाबले हज़ारों में डिस्लाइक्स यू-ट्यूब पर दे दिये गये। यह बात अलग है कि काफी समय बाद तक जेडी-यू के सामान्य कारकुन से लेकर शीर्षस्थ नेता तक कार्यक्रम को भारी मात्रा में सफल बताते रहे। यहां तक कि इसके लिए सत्ताधारी पार्टी ने करोड़ों का खर्च भी किया। यह बात दीगर है कि लाइव शुरू होने के साथ ही दो या तीन बार नेटवर्क भी गायब हुआ, लेकिन उसके बाद तुरंत फिर से इसका प्रसारण किया गया।

समस्याएं दोहरी-तिहरी हैं और सभी पार्टी को ही झेलनी पड़ रही हैं। जो पार्टी एक व्यक्ति की है, जैसे आरजेडी, जेडी-यू आदि, वहां तो फिर भी गनीमत है, लेकिन भाजपा जैसी काडर-बेस्ड पार्टी को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। समस्या ओल्ड गार्ड बनाम युवा तुर्क की है।

राजद से अगर शुरू कीजिए तो आप देखेंगे कि लालू के सबसे पुराने और सबसे विश्वसनीय साथी रघुवंश प्रसाद, जो आज नहीं रहे, उनसे अलग होते भी हैं तो कहां से? एम्स के आइसीयू से। यह भी सोचने की बात है कि जब लालू आतंकराज और जंगलराज के प्रतीक थे, तब भी रघुवंश प्रसाद उनके साथ बगलगीर बनकर खड़े रहे, ढाल की तरह तने रहे। इसके पीछे अंदरखाने की गप तो कुछ लोग यह बताते हैं कि रघुवंश को अपने बेटे के राजनीतिक भविष्य को सुरक्षित रखना था, तो कुछ तो बात छन कर आ रही है कि तेजस्वी शायद उतने मान से रघुवंश जी को नहीं रख पाये, जितना लालू रखते थे।

समस्या लालू, सोनिया, मुलायम इत्यादि सभी की एक जैसी है। दरअसल, सोनिया को छोड़ दें तो बाकी सभी हिंदी पट्टी के रस्टिक, देसी नेता रहे हैं। इसी सूची में रामविलास पासवान भी आते हैं जो अपने पुत्र के सामने हथियार डाल चुके हैं। अब अखिलेश, चिराग, तेजस्वी आदि को एक साथ जोड़िए। ये ज़मीनी नेता हैं नहीं, ऊपर-ऊपर से पैराशूट लांच होते हैं, फिर विदेशों के पढ़े हैं, तो लालू जिस तरह भैंस की पूंछ मोड़ सकते हैं या बाल्टी लेकर दूध दुहने बैठ सकते थे, वह इनके लालों के बूते की बात नहीं है। वे अगर ऐसा कुछ करेंगे भी, तो वह अपने अपने बापों का सस्ता कैरिकेचर मात्र होगा। अखिलेश और राहुल तो खैर विदेश से लोटै हुए हैं। शायद, चिराग भी।

इन तथाकथित युवा तुर्कों से ज़मीन की सच्चाई उतनी ही दूर है, जितनी किसी नेता के वादे से हकीकत। समस्या यह है कि इनके पिताओं ने जो जमीन बनायी थी, वह इनके पैरों के नीचे से खो चुकी है। वर्चुअल वर्ल्ड में ये भले ही खुद की पीठ थपथपा लें, लेकिन जीवन की कठोर सच्चाई यही है कि ये लोग अपने पिता की विरासत को संभाल नहीं पाये हैं।

भाजपा के साथ समस्या दूसरी है। भाजपा में ओल्ड गार्ड के नाम पर संघ के धोतीछाप प्रतिनिधि हैं, तो चुनावी कमान युवा एप्पलधारी रंगरूटों ने संभाल रखी है। यहां कम्युनिकेशन गैप की वजह से पार्टी को नुकसान उठाना पड़ रहा है। भाजपा ने कॉरपोरेट स्टाइल में पूरे चुनाव को रंग दिया है। अब, सवाल यह है कि दिल्ली के मैक और ब्लूटूथधारी जो रंगरूट पटना के भाजपा मुख्यालय में पाये जा रहे हैं, वे जाने-अनजाने कार्यकर्ताओं को दुखी कर रहे हैं।

जिन कार्यकर्ताओं ने पूरे साल भर या कई वर्षों तक काम कर पार्टी के सोशल मीडिया की जड़ें सुदूर जगहों तक पहुंचाईं, अब पता चलता है कि अचानक ही दिल्ली और गुजरात से आये लोगों ने पूरे सिस्टम पर कब्जा कर लिया है और कार्यकर्ताओं को किनारे कर दिया गया है।

इसी तरह, संघ के ओल्ड गार्ड का मानना है कि वर्चुअल दुनिया की जगह वास्तविक दुनिया में पार्टी को फोकस करने की जरूरत है, जिसकी अभी सख्त कमी दिखायी दे रही है। भले ही भाई साहब कल्चर से भाजपा अभी पूरी तरह मुक्त नहीं हो पायी है, लेकिन जो पुराने लोग यानी भाईसाब लोग हैं उनकी मान-मनौव्वल कर उनके भी ट्विटर और फेसबुक अकाउंट बना दिये गये हैं। सोशल मीडिया की जानकारी न होने की वजह से उनके लिए इस फील्ड के मायने ही कुछ और हैं।

दूसरी ओर, इसी और मात्र इसी फील्ड के धुरंधर भी यहां हैं, जो समझते हैं कि माउस के एक क्लिक से दुनिया बदल जाएगी, लेकिन इसी वजह से कई बार हास्यास्पद समस्याएं भी पैदा हो जा रही हैं।

हाल ही में भाजपा ने जब हाइटेक मीडिया सेंटर पटना में शुरू किया, तो वहां दिल्ली से आये एक रंगरूट ने पार्टी के दिग्गज नेता को कोहनी मार दी, जिससे उनकी चाय छलक गयी। चाय जो छलकी सो छलकी, उस रंगरूट ने पार्टी-नेता के कंधे पर हाथ रखकर कह भी दिया- “नो प्रॉब्लम ब्रो”!

नेता ने तो कुछ नहीं कहा, लेकिन उनके साथ वाले ने कह दिया, “बड़गांही के, प्रॉब्लम त बड़का रहितौ… लेकिन…!”



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