अंजनी कुमार |
(पिछले दिनों गुंटर ग्रास की कविता पर आई कवि विष्णु खरे की चिट्ठी से एक बहस शुरू हुई। मोटे तौर पर इस बहस के दो आयाम हैं। पहला आयाम हिंदी साहित्य और उसे प्रैक्टिस करने वालों की अपनी भीतरी राजनीति, और दूसरा आयाम है इराक पर इज़रायल-अमेरिका-ब्रिटेन के आसन्न हमले को लेकर राजनीतिक समझदारी। इसी सिलसिले में अंजनी कुमार का भेजा यह आलेख पिछले 25 साल के दौरान तमाम किस्म के राजनीतिक संकटों के दौरान हिंदी जगत के भीतर बरती गई राजनीति की पड़ताल करता है। पहले आयाम को टटोलता यह लेख बताता है कि जो राजनीतिक लाइन हिंदी लेखकों के बीच इराक और अफगानिस्तान पर अमेरिकी हमले के दौरान ली गई थी, वो आज तक जारी है।)
”हम दोषमुक्त हो जाते हैं क्योंकि प्रथमतया हम जो करते हैं उसके नतीजों की ओर देखने की आवश्यकता नहीं होती। हम लोग व्यवहार की पटुता से घिरे ही नहीं अपने को घेरे भी रहते हैं ताकि उन लोगों और उनकी भूमि का पूरा उपयोग कर सकें। वह क्षेत्र और उसके निवासी पूरी तरह हमारे अधीन हो जाएं। और जैसे-जैसे हम इन अपेक्षाओं को कुशलतापूर्वक पूरा करते हैं, हमें भी यह (साम्राज्यवाद) पूरी तरह आत्मसात कर लेता है।” (एडवर्ड सईद)
‘जनपथ‘ पर चल रही बहस के व्यक्तिगत पक्षों को हटा कर बात करें तो यह उस स्थिति का बयान है जिसमें एक वयोवृद्ध लेखक ब्लॉग को सिर्फ इसलिए देख रहा है कि वहां ‘जहालत की ऊंचाइयां-नीचाइयां छुई जा रही हैं।’ राजनीतिक तौर पर सचेत होने की दावेदारी का यह नमूना कोई नया नहीं है पर एक संवेदनशील लेखक की यह ‘दृष्टि‘ भीतर तक झकझोर जाती है।
सचमुच ‘यह हमारे ही समय में होना था‘। हमारे ही समय में कुल 25 साल गुज़र गए। हिन्दी साहित्य में 25 साल और इस बीच कोई ‘युग‘ नहीं। हिन्दी में 1980 के बाद से चला आ रहा समय का चेहरा इतना ही सपाट है जितना बना दिया गया है। इस बीच हिन्दी साहित्य में किसी ने ‘युग प्रवर्तन‘ की दावेदारी भी नहीं की। कहां हो ‘मानवता’ और ‘आत्मीय क्षणों‘ का गीत गाने ‘आह मेरे लोगों, ओह मेरे लोगों‘।
ज़ाहिर है कि यह ऐसे ही नहीं हुआ है। नामदेव ढसाल की राजनीति को ‘चूत्या बनाने वाली राजनीति‘ बताने के पीछे वह सुविधा है जिससे सारे दलित, स्त्री आदि साहित्यकारों को ‘राजनीतिक लेखन‘ के दायरे में डाला जा सके। खूब लिखा जा रहा है अर्थात खूब राजनीति हो रही है। यह सरल समीकरण नहीं है। यह नक्सलबाड़ी साहित्यधारा की आलोचना करने वाले साहित्यकारों का सिद्धांत है जिन्होंने साहित्कार बनने का एक आसान सा नुस्खा दिया: गुल्लक में रोज़ एक रुपया डालते जाओ, फिर एक दिन तुम धनी बन जाओगे। निजीकरण, उदारीकरण, वैश्वीकरण के दौर में भाजपा के उभार के साथ मुस्लिम समुदाय को चुन-चुन कर मारा गया। इस पर एक-दो कविताएं लिख कर गुल्लक भर लिया गया। दलित समुदाय को हमले का शिकार बनाया गया। इस पर एकाध चवन्नी गुल्लक में डाल ली गई। स्त्री पर अदमनीय लालसा के साथ कविताएं लिख ली गईं और इन्हें भी गुल्लक में डाल लिया गया। सेक्युलरिज्म का गीत गा लिया, बस! कविताओं के धनी लोगों की संख्या में भले इजाफा न हुआ हो, धनी कवियों की संख्या ज़रूर बढ़ती गई है। यह भारतीय राजनीति के सेक्युलर समाहीकरण की प्रक्रिया है जिसमें समाहित हो रहे लोग इस बात से वाकिफ़ रहते हैं कि राजनीति अपना काम कर रही है।
हिन्दी साहित्यकारों में शायद ही कोई हो जो वैश्वीकरण का विरोध न कर रहा हो। और यह भी उतना ही सच है कि शायद ही कोई हो जो उसका समर्थन न कर रहा हो। आम तौर पर जिस बड़े साहित्यकार ने जब भी वैश्वीकरण पर कलम उठाई, वैश्वीकरण के फायदों को गिनाने से नहीं बचा। वह यह बताने से नहीं रुका कि यह तो एक ‘स्वाभाविक‘ प्रक्रिया है, कि यह मनुष्य की प्रगति का द्योतक है। विरोध था तो बस इसकी गति और अमेरिका के चालक होने को लेकर था। हिन्दी साहित्यकार के लिए वैश्वीकरण ‘समय‘ और ‘देश‘ में तो ठीक था लेकिन उसमें उतरने वाले तत्वों को लेकर परेशानी थी। विष्णु खरे के अनुसार विश्व की राजनीतिक तौर पर सबसे अगुवा कवियत्री कात्यायनी की कविता में भी ऐसी ही तटस्थता दिखती है। एक भड़भूजे वाले का उजड़ना, मरना इस कवियत्री को अत्यंत ‘प्राकृतिक‘ लगता है। वैसे ही जैसे इस दौर के आम साहित्यकारों को वैश्वीकरण ‘प्राकृतिक घटनाक्रम‘ लगा था।
यह सोच एक राजनीति का परिणाम है और यह एक राजनीति को आगे ले चलने का वाहक भी है। दुनिया की राजनीति में वैश्वीकरण विरोध का कुल अर्थ अमेरिका विरोध रह गया है। चूंकि विरोध निरपेक्ष नहीं होना चाहिए, इसलिए इन साहित्यकारों ने सापेक्षता के लिए वही ‘मानवता‘ और ‘मनुष्य के आत्मीण क्षण‘ को खड़ा कर लिया।1950-60 के बाद दुनिया के स्तर पर न्यू लेफ्ट, लिबरल, डेमोक्रेट आदि ने जिस मानवता की चाह को सिद्धांतबद्ध किया था, वह अब साम्राज्यवाद के लिए अच्छा बिस्तर बन चुका था। धर्म, राष्ट्र, भाषा, जन, वर्ग जैसे प्रवर्ग को रंगेद देने के लिए वैचारिक और सांस्कृतिक ज़मीन तैयार हो चुकी थी। देश के स्तर पर भी और दुनिया के स्तर पर भी।
यह सेक्युलरवाद का झंडा है। हिन्दी साहित्यकारों का एक बड़ा हिस्सा इसे लंबे समय से हिला रहा है। अमेरिका ने जब अफगानिस्तान में हमला किया तो इन साहित्यकारों को तालिबानियों की कहानियां सुनकर हैरत हुई। मानवता के नाम पर वे चुप रहे। इराक पर हमला हुआ तब अमेरिका का विरोध करने में सद्दाम आड़े आ गया। उसे तो पहले हटना ही होगा- यह सोच थी और लेखन का तर्क था। और इराक को गुलाम बना लिया गया। लीबिया से लेकर हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान पर अमेरिका काबिज हो गया, पर तर्क वही बना रहा- इन देशों में मानवता नाम की चीज़ नहीं है, स्त्रियां मुक्त नहीं हैं, तानाशाही है, वहां कुरान का मध्ययुगीन राज है, आदि आदि…. तो उन्हें ‘हम‘ देश दे भी दें तो उससे जनता का क्या भला होगा? यही तर्क है इन सेक्युलर साहित्यकारों का। इसीलिए ईरान के फासीवाद पर बात करना जरूरी है- जैसा कि विष्णु खरे जी फरमाते हैं। लेकिन ऐसे में फलस्तीन का भविष्य? यह तो मानवता का हनन रुकने से ही तय होगा, यह सवाल आतंकवाद के खत्म होने से तय होगा- यह आम सेक्युलर लेखन का तर्क है। यह खुद को दोषमुक्त कर लेने का तर्क है। यह पक्षधरता से बच निकलने का तर्क है। यही कारण है कि देश में जब कश्मीर का मसला आता है, तेलंगाना की बात आती है या नक्सलवाद और माओवाद के खिलाफ चलाए जा रहे राज्य सैन्य अभियानों का मसला आता है तो साहित्यकारों का एक बड़ा हिस्सा ‘मानवता‘ के नाम पर एक ही बात दोहराता है- हथियार नहीं! हथियार नहीं!
‘सत्ता के मुंह पर सत्य बोलना कोई कोरा आदर्शवाद नहीं है। इसका अर्थ होता है सावधानीपूर्वक विकल्पों को परखना, उचित विकल्प को पहचानना और होशियारी के साथ ऐसे स्थान पर प्रस्तुत करना जहां यह सर्वाधिक कल्याण कर सके और उचित परिवर्तन का उत्स बन सके।‘ (एडवर्ड सईद)
कह सकते हैं यह पक्षधरता से तय होता है। अपने देश में ‘तालिबानी समाज‘ भी है और ईरान से कहीं अधिक ‘फासिज्म‘ भी। इसी देश में अमेरिका की गुप्तचर एजेंसी का खुला कार्यालय भी है और उसके सैन्य ठिकाने भी। यहां दुनिया के सबसे भ्रष्ट राजनीतिज्ञ भी हैं और जनसंहार में खुली भागीदारी करने वाले जिंदल-मित्तल-टाटा-रिलायंस भी। ज़ाहिर है, बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी…।
इस बहस से जुड़े पिछले आलेख नीचे देखें:
बिसनू, कौन कुमति तोहे लागी
मूर्खों सावधान, मैं सिंह हूं जो तुम्हें आहार बना सकता हूं
जाहिल इज़रायल विरोधियों को नहीं दिखता ईरान का फासीवाद
गुंटर ग्रास की विवादित कविता हिंदी में: ‘जो कहा जाना चाहिए’
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bohot acha lekh hai…….baat nikalegi to bohot dur talak jaegi….
प्रिय अभिषेक जी
आपके ब्लाॅग पर ग्रास की कविता के बहाने चल रही बहस को पढ़ा। पढ़ कर अच्छा लगा कि यह बहस सार्वजनिक होने से पता चलता है कि ऐसे नामी गिरामी लेखक पुरोधा दरअसल क्या सोचते हैं। एक बार लिख जाने के बाद यह उसे नकार नहीं सकते। यह सच है कि किसी आदमी को समझने के लिए जरूरी है कि उसे नकाब दर नकाब उठा कर देखा जाए। (याद करिये-हरेक आदमी में होते हैं दस बीस आदमी. किसी को जानना हो तो कई बार देखो)। यह अलग बात है विष्णु खरे जैसे पुरोधाओं को हम लोगों ने एक दो नहीं सैकड़ों बार देख लिया है। मुझे लगता है कि ये लोग अपना सर्वोत्तम लिख चुके हैं और इन्हंे किसी म्यूजि+यम की वस्तु हो जाना चाहिए। नहीं तो मोहभंग इतना अधिक होता है कि हमें नए सिरे से सबकुछ नकारने के अलावा कोई रास्ता नहीं सूझता।
जहां तक राजनीतिक सोच का सवाल है इज+राइल के विरोध की बात करने वालों को जाहिल बताने वाले दरअसल अपने ठस दिमाग का परिचय देते हैं। दरअसल अब इनकी सोच का प्रवाह रुक सा गया है। और ठहरे हुए जल में सड़ांध आ ही जाती है। इन्हंे अमरीकी-इज+रायली साम्राज्यवाद और ईरान के फासीवाद में फर्क करना नहीं आता। यहीं पर ग्रास की बात ज्यादा प्रासंगिक हो उठती है कि अब वक्त आ गया है कि सच कहा जाए।
अभिषेक बातंे बहुत सी हैं। पर प्रतिक्रिया की अपनी सीमा है। कभी विस्तार से लिखूंगी। हां चलते-चलते एक बात और। हालांकि मैं विषयांतर नहीं करना चाहती। पर बिना कहे रहा नहीं जाता। आपने विष्णु जी के साथ बातचीत में एक जगह धूमिल के कोट किया है-जहां पूंछ उठायी……। मैं आपको बता दूं कि मैं कुछ भी होने से पहले एक मादा हूं और इसके लिए मुझे कतई अफसोस नहीं है। इस कविता के लिए मैं धूमिल को कभी माफ नहीं कर सकती। आप औरतों के प्रति अपनी इस सोच से उबर जाएं तो शायद आपकी राजनीतिक तीक्ष्णता में और धार आ जाएगी। वैसे भी मेरे ख्याल से किसी की भी राजनीतिक सोच क्या है इसका लिटमस टेस्ट होता है औरतों (या कहें मादा के प्रति) के प्रति उसकी सोच से।
बहरहाल ब्लाग में छिड़ी इस तरह की बहसों से यह उम्मीद बनी हुयी है कि अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ। आप चलिये कारवां बढ़ेगा निश्चित…..
कृति
धूमिल की पंक्ति वाली आपकी बात जायज़ है और मैं पहले उसके लिए सार्वजनिक माफी मांग चुका हूं, लेकिन लगता है आपने शुरू से इस बहस को फॉलो नहीं किया। जिस दिन दोनों पत्र पोस्ट हुए थे, उसी दिन मुझे एक साथी ने इस गलती का अहसास दिलाया था और मोहल्ला पर टिप्पणी की थी। मैंने तत्काल माफी मांग ली थी… कृपया इस लिंक को देखें… http://mohallalive.com/2012/04/17/letter-to-letter-conversation-between-vishnu-khare-and-abhishek-shrivastav/
मैं एक बार फिर उस कविता के प्रयोग के लिए क्षमा चाहूंगा… महिलाओं के प्रति मेरी ऐसी सोच कतई नहीं है, यह सिर्फ लेखन में सचेत न रहने का दोष है।
abhishek aap ke pratyuttar se man santusht ho gaya.ye sahi hai ki maine der se is bahas ko dekha. aur mohalla pe to bahut dino se nai gayi. mujhe jyada blogging aati nai hai.abhi koshish kar rahi hoo seekhne ki…
kriti
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