शिवमंगल सिद्धांतकर ‘बाबा’ के जवाब पर कवि और ‘बाबा’ की पत्रिका के संपादक रहे रंजीत वर्मा ने अपनी टिप्पणी भेजी है। यह टिप्पणी परत दर परत ‘बाबा’ के जवाब का पोस्टमॉर्टम करती है।
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रंजीत वर्मा |
यह जवाब देने से पहले मैं बता दूं कि मेरे मन में पुनीता शर्मा को लेकर कोई सवाल नहीं है। सवाल शिवमंगल जी के स्टैंड को लेकर है। मेरे मन में यह सवाल भी नहीं उठता अगर पुनीता शर्मा राग विराग की सचिव नहीं होतीं और शिवमंगल जी अपने लगभग सारे सांस्कृतिक कार्यक्रम राग विराग के अंतर्गत नहीं कर रहे होते। यहां यह याद दिलाने की जरूरत नहीं कि शीला सिद्धांतकर स्मृति पुरस्कार राग विराग संस्था की ओर से ही दिया जाता है और देशज समकालीन की अंतिम बैठक में उन्होंने कहा था कि अब इस पत्रिका को निकालने का सारा भार राग विराग उठायेगा क्योंकि उसके पास फंड है, वह सक्षम है। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों पुरस्कार लेने के बाद मामला सिर्फ यह नहीं रहा कि पुनीता शर्मा गैर मार्क्सवादी हैं इसलिए उनसे ऐसी कोई उम्मीद नहीं की जानी चाहिये थी जैसा कि अपने जवाब में शिवमंगल जी ने कहा है बल्कि अब यह मामला उनके मार्क्सवाद विरोधी होने तक चला गया है। और अगर ऐसा नहीं है यानी कि वे मार्क्सवाद विरोधी नहीं हैं और किसी मार्क्सवादी संस्था से भी पुरस्कार लेने में उन्हें कोई आपत्ति नहीं है तो मैं इसे उनके अवसरवादी होने के लक्षण के रूप में ही देखूंगा जो उतनी ही आपत्तिजनक बात है। तब भला ऐसी किसी संस्था की ओर से कोई मार्क्सवादी विचारधारा की पत्रिका का निकाला जाना मुझे अपनी समझ के परे लगा अतः मैंने शिवमंगल जी से उनका स्टैंड जानना चाहा। उन्होंने जो जवाब दिया उससे मेरा सहमत होना मुश्किल था और तब मैंने पत्रिका के संपादक पद से हट जाने में अपनी भलाई समझी।
शिवमंगल सिद्धांतकर जी की यह स्थापना कि किसी के भी हाथों पुरस्कृत होने में कोई बुराई नहीं है चाहे वह मानवता का कोई बहुत बड़ा हत्यारा ही क्यों न हो अपने आप में किसी को भी चौंका देने के लिए काफी है। उनके हिसाब से बुराई सिर्फ तब है जब आप उसे पुरस्कृत करते हैं। शिवमंगल जी ने यह स्थापना तो दे दी लेकिन उन्होंने इसकी व्याख्या करना और इसे सत्यापित करना जरूरी नहीं समझा जबकि उन्हें चाहिये था कि वे बताते कि दोनों में क्या अंतर है। अगर कोई उनसे यह पूछे कि आप पुरस्कार जिससे ले सकते हैं उसे दे क्यों नहीं सकते तो मुझे नहीं मालूम कि उनका जवाब क्या होगा, लेकिन एक मोटी बात जो मेरी समझ में आती है वह यह है कि आप जब किसी के हाथों पुरस्कार ले रहे होते हैं तो जाहिर तौर पर आप उसे न सिर्फ उस समाज की ओर से स्वीकृति प्रदान कर रहे होते हैं जहां से आप आते हैं बल्कि साथ ही चूंकि आप वैचारिक रूप से भी अपनी एक अलग पहचान रखते हैं (अगर यह सच है तो), उस विचारधारा की ओर से भी उसे क्लीन चिट दे रहे होते हैं। और क्या इस तरह से उसे मान्य घोषित करना या मान्यता प्रदान करना उसे भी सम्मानित करना नहीं हुआ? और अगर हुआ तो आप इसे क्यों नहीं आपत्तिजनक मान रहे हैं! यह पाखंड के अलावा और कुछ नहीं है। और उस पर यह तुर्रा कि इसमें गलत क्या है! और जिसने गलत कहा उसे ही कठघरे में खड़ा कर दिया!
मंगलेश जी ने राकेश सिन्हा के साथ मंच साझा करने पर अपनी गलती स्वीकार करते हुए जब कहा कि वह उनकी चूक थी, तो बाबा के नाम से प्रख्यात शिवमंगल जी ने अपनी शैली में जवाब देते हुए इसे वैज्ञानिक द्वंद्वात्मक पद्धति के विपरीत कहा। यानी कि दूसरे शब्दों में वे यह कह रहे हैं कि मंगलेश डबराल ने चूक मान कर मार्क्सवाद विरोधी काम कर दिया मानो भगवा चिंतक राकेश सिन्हा के मंच पर जाकर सचमुच वे द्वंद्वात्मक भौतिकवाद पद्धति का पालन कर रहे थे- जैसा कि शिवमंगल जी का कहना है। इस तरह वे चूक मानने पर न सिर्फ मंगलेश डबराल को मार्क्सवाद विरोधी साबित करते हैं बल्कि साथ में यह कह कर कि मंगलेश जी ने ऐसा दबाव में किया, वे उनके तमाम मार्क्सवादी साथी रचनाकारों को भी कठघरे में खड़ा कर देते हैं जो उन पर उनके हिसाब से दबाव बना रहे थे कि इसे वे अपनी चूक मानें। यह सब वे सिर्फ इसलिए कह रहे हैं ताकि कोई उनसे यह उम्मीद न करे कि वे परिवारवाद को तिलांजली देते हुए पुनीता शर्मा को राग विराग के सचिव पद से हटा देंगे या नहीं तो खुद को राग विराग से अलग कर लेंगे। वे मंगलेश डबराल की तरह गलत को गलत मानने वाली कोई गलती नहीं करने जा रहे हैं। वे इस मामले में उदय प्रकाश की तरह भी कोई सफाई देने की कोशिश नहीं करेंगे क्योंकि हत्यारा हो या वह चाहे घनघोर रूप से कितना भी मानवता विरोधी क्यों न हो, वे मानते ही नहीं कि उसके हाथों पुरस्कार लेना गलत भी हो सकता है।
उनका मानना है कि हत्यारे के साथ भी सिर्फ टकराव की नीति पर नहीं बल्कि सामंजस्य की नीति पर भी चलना चाहिये क्योंकि इसी तरह इतिहास आगे बढ़ता है। सन् 67 से वे इसी तरह इतिहास को आगे बढ़ा रहे हैं। आप खुद देखिये किस तरह उनका परिवार बिहार की सामंतवादी जकड़न से निकल कर अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पहुंच गया है। वे खुद कह रहे हैं, मैं नहीं कह रहा। यह द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का परिणाम नहीं तो और क्या लगता है आपको, और आप हैं कि उनके ही खिलाफ मोर्चा खोल कर बैठ गए हैं। क्या ऐसा करते वक्त नहीं लगता आपको कि आप मोदी और मनमोहन के हाथ मजबूत कर रहे हैं, जैसा कि शिवमंगल जी कह रहे हैं। एकदम ठीक कह रहे हैं वो। अब आप यह तर्क लेकर मत बैठ जाइये कि पुरस्कार ले रही हैं पुनीता शर्मा और उसे जायज़ वे खुद ठहरा रहे हैं तो मैं कैसे मोदी के हाथ मजबूत कर रहा हूं। चुप बैठें आप। समझदारी तो नाम भर की भी नहीं है आपके पास। बस ऐसे ही किसी पर भी उंगली उठा देते हैं। अब आप इतिहास वगैरह का हवाला मत दीजिये क्योंकि आप जो भी कहेंगे सब भूमंडलीकरण से ज़माने पहले की बात करेंगे। शिवमंगल जी भूमंडलीकरण के बाद वाले चरण में आ गये हैं और यहां स्थितियां बिल्कुल बदली हुई हैं। अब सारा आंदोलन दुश्मनों से सामंजस्य और मित्र शक्तियों से टकराव के सिद्धांत पर चल रहा है। यह सामंजस्य और टकराव का नया द्वंदवाद है। इसमें पुरानी वाली वह बात नहीं रही- जैसे कि अगर सामंतयुगीन कोई सृजन या मूल्य बेहतर है तो उसके साथ सामंजस्य बैठाओ और साथ ही उस युग को नेस्तनाबूद करते हुए सर्वहारा समाज का आधिपत्य स्थापित करो। नहीं अब पुरानी पड़ गयी ये बातें अब सामंजस्य के नाम पर हत्यारे से गले लगना है। यह दूसरे को धकियाते किसी भी तरह आगे बढ़ जाने का युग है। ऐसे ही अंतरराष्ट्रीयकरण नहीं हुआ है उनके परिवार का, जिसे वे थोड़ा सा मिस्टेक करते हुए अंतरराष्ट्रीय स्तर का कह रहे हैं। आप चाहें तो मन ही मन इसे सुधार सकते हैं लेकिन बोलियेगा नहीं कुछ, नहीं तो वे बुरा मान जायेंगे।
वे पहुंचे हुए आदमी हैं। उनकी एक और स्थापना देखिये- ’यथार्थ और आभास के द्वंद्व की वैज्ञानिकता को समझने वाले कहते हैं कि जो दिखता है, जरूरी नहीं कि सच हो ही।’ बात समझ में आयी। अब गया वो ज़माना पदार्थ और चेतना वाला कि पदार्थ से चेतना का विकास होता है। अब चेतना नहीं आती, अब सिर्फ आभास होता है जो गलत भी हो सकता है क्योंकि पदार्थ भी अब पहले की तरह यथार्थपरक नहीं रहा। जानकारों को पता है कि अब तो ऐसे लोग भी मिलने लगे हैं जो अपनी पूरी जि़ंदगी आभासी दुनिया में गुज़ार देते हैं और उन्हें इसका आभास भी नहीं होता। आखिर क्या सोचकर वे कह रहे हैं कि उनके घर पर रखी मेज़ उनकी नहीं है बल्कि सार्वजनिक है। किसी के भी घर में जो कुछ सामान होता है उसका इस्तेमाल अमूमन घर के सभी सदस्य करते होते हैं अगर वह नितांत व्यक्तिगत न हो। तो क्या इसी आधार पर उन सामानों को सार्वजनिक कहा जा सकता है। पारिवारिक और सार्वजनिक होने के बीच का अंतर समझ कर भी जो आभास और यथार्थ के फलसफे के बीच उलझाने की कोशिश कर रहा हो, आप समझ सकते हें कि ऐसा आदमी कितना खतरनाक और छलावे से भरा हो सकता है। अगर यह मान भी लिया जाये कि उनके कमरे में रखी मेज़ सार्वजनिक है तो इससे क्या वह शील्ड जिस पर मोदी का नाम खुदा है और जिसे मोदी के हाथों लिया गया है उसे वैचारिक धरातल पर सही माना जा सकता है, जिसकी कोशिश शिवमंगल जी कर रहे हैं और तब से एड़ी चोटी का पसीना बहाने में लगे हुए हें। या यह कहकर कि पुनीता के नृत्य पर मनोज तिवारी झूम रहे थे, वे क्या साबित करना चाहते हैं। कौन है यह मनोज तिवारी? और उसके झूमने से मोदी के एजेंडे के तहत नृत्य प्रस्तुत करना कैसे सही हो गया।
देखिये मैंने पहले ही कह दिया है कि मुझे उनके नृत्य करने या पुरस्कार लेने पर कोई आपत्ति नहीं है, आपत्ति है तो सिर्फ इस बात पर कि शिवमंगल सिद्धांतकर इसे सही
ठहराने की कोशिश कर रहे हैं जो खुद को क्रांतिकारी कहते हैं। ये दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकतीं। वे किसी एक को छोड़ दें किसी को कोई आपत्ति नहीं होगी।
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मार्क्सवाद के अनुकूल है मंगलेश और उदय प्रकाश का आचरण
बाबा की मेज़ पर मोदी की शील्ड
एक दम सही विश्लेषण है रंजित वर्मा का. गलती करना एक बात है लेकिन गलती को दार्शनिक लिबाज पहनाना एक दम दूसरी. उस पर दंभ के साथ 'सब को माफ़ कर देना' तो बईमानी ही है.