शाह आलम |
बात उन दिनों की है जब मैं जामिया केंद्रीय विश्वविद्यालय में शोध छात्र था। 2009 के नवंबर का महीना था। उन दिनों हम लोग शाम को जामिया के पश्चिमी छोर पर स्थित चाय की एक दुकान पर एकाध घण्टे तो गुजार ही दिया करते थे। इस दुकान पर बैठने के लिए कोई बेंच नही होती थी। पत्थरों और ज़मीन पर लोग जमे रहते थे। यहां बैठने वाले इस जगह को लाल चौक कहते थे। उस दौरान मैं 19 दिसम्बर को शहादत दिवस पर होने वाले कार्यक्रम की तैयारी में लगा था। दिसंबर की यह तारीख़ काकोरी के नायकों की शहादत का दिन है। इस दिन हम लोग अयोध्या में तीन दिनी फिल्म उत्सव करते हैं। यह उत्सव अमर शहीद अशफाकउल्लाह खान और पं. राम प्रसाद बिस्मिल की याद में होता है। कार्यक्रम दोनों क्रांतिकारियों की दोस्ती को समर्पित होता है।
आज़ादी के मतवालों के बहादुराना किस्सों की इबारत दिमाग में जैसे खुद सी गई है, लिहाजा लाल चौक पर बैठने पर अपनी बातचीत का यही दायरा होता था। रूमानी भाव से सैकड़ों छात्र यहां बैठने के दौरान हाजिरी लगा जाते थे। आगामी उत्सव में लगने वाले कविता पोस्टर बनने को लेकर बात टिकी थी। ज्यों ही ‘सरफरोशी की तमन्ना’ नज़्म का जिक्र छिड़ा तो तपाक से एक छात्र बोला कि यह नज़्म मेरे दादा ने लिखी है। यह सुनकर मैं हैरान रह गया क्योंकि आजादी का यह तराना बहुत सारी जगहों पर पंडित रामप्रसाद बिस्मिल के नाम से पहले छपा देखा था। अपनी दिलचस्पी जगी, हकीकत जानने-समझने को जेहन में इच्छा जगी। संयोग से इसी साल जनवरी की सर्दी में एक अंग्रेजी भाषा की फिल्म की शूर्टिंग थी। यह फिल्म तथागत बुद्ध के जीवन के अंतिम दस वर्षो पर केंद्रित थी। यह महज संयोग था कि फिल्म में मुझे एक्टिंग करनी थी और उस दौर को पर्दे पर उतारने के वास्ते झारखण्ड के चतरा जिला में 15 दिनों का प्रवास रहा, जिसके बाद लौटकर पटना आना हुआ और मेरी जिज्ञासा को मशहूर खुदाबख्श लाइब्रेरी में राहत मिली।
दरअसल, दिसंबर 2007 में सिनेमा को लेकर एक दैनिक अख़बार में मेरा इंटरव्यू छपा था। ”कुछ आरज़ू नही है, है आरज़ू तो यह है/ रख दे जरा सी कोई ख़ाक-ए-वतन कफ़न में”, अशफाक़ के इस शेर के बहाने अपनी भी आरज़ू को यानी ‘काकोरी’ के शहीदों पर फिल्म निर्माण के सपने को उस अख़बार ने तरजीह दी थी। कुछ दस्तावेज़ों और किताबों की दरकार थी, जो इस लाइबेरी के प्रकाशन विभाग से छपी थीं। एक बुज़ुर्ग लाइब्रेरियन से मिला। उन्होंने हाल दरयाफ्त किया और काम की हौसला अफ़ज़ाई करते हुए सारे स्टाफ से मुझे मिलवाया। इस बारे में ज़रूरी किताबें और रसीद थमाते हुए बोले कि यह मेरी तरफ से तोहफ़ा है, हालांकि किताबो के पैसे उन्होंने चुकता कर दिए थे।
बिस्मिल अज़ीमाबादी |
बहरहाल, यहां पहुंचकर छह साल पुरानी याद ताजा हो गई। जामिया के दोस्त फ़हद को मैंने फोन मिलाया और पटना सिटी की तरफ दोस्त के घर यानी उसके दादा बिस्मिल अज़ीमाबादी के घर चल दिया। घर के बारामदे मे बिस्मिल अज़ीमाबादी के बेटे सैय्यद शाह हामिद हसन से मुलाकात हुई जो बिहार विधान परिषद की नौकरी से रिटायर होकर अब घर पर ही रहते हैं। बिस्मिल अज़ीमाबादी के बेटे सैयद शाह मोहम्मद हसन ने बताया कि उनके अब्बा ने यह इंकलाबी गज़ल 1921 में लिखी थी। दरअसल, शायरों की महफि़ल यहां जमती थी जिसमें जमील मज़हरी, डॉ. मुबारक अज़ीमाबादी, जोश, ज़ार, सबा हुसैन रिज़वी, शाद अज़ीमाबादी आदि के शेर व शायरी गूंजती रहती थी। यह नज़्म जिन जगहों पर छपी उसे अंग्रेज सरकार ने ज़ब्त तो किया ही, उनके अब्बा की गिरफ्तारी का वारंट भी निकाल दिया। हसन ने बताया, ”जब अब्बा ने यह नज़्म लिखी थी तो उनकी उम्र महज बीस साल की थी।”
दरअसल पं. राम प्रसाद बिस्मिल भी ‘बिस्मिल’ उपनाम से शायरी करते थे। 19 दिसंबर 1927 को गोरखपुर जेल में फांसी के तख्ते से बिस्मिल अज़ीमाबादी के इस गीत को पढ़कर उन्होंने इसे अमर कर दिया। इससे लोगों ने उनका नाम जोड़ दिया। यह गज़ल इतनी मकबूल हुई कि काकोरी के इंकलाबियों के लिए आज़ादी का तराना बन गई। कुछ संदर्भ स्रोत हैं जिनसे यह साबित होता है कि ‘सरफ़रोशी की तमन्ना” रामप्रसाद बिस्मिल नहीं बल्कि बिस्मिल अज़ीमाबादी ने लिखी थी।
– बिस्मिल अज़ीमाबादी ने यह नज्म 1921 में लिखी थी। जिस काग़ज़ पर यह नज़्म लिखी गई है, इस पर उनके उस्ताद शायर शाद अज़ीमाबादी ने सुधार भी किया है। इसकी मूल प्रति आज भी इनके परिवार के पास सुरक्षित है और इसकी नकल खुदाबख्श लाइब्रेरी में रखी हुई है।
– ‘बिस्मिल अज़ीमाबादी के नाम एक शाम‘ रिकार्डिंग टेप-80 खुदाबख्श लाइब्रेरी में है। इसमें बिस्मिल अज़ीमाबादी का इंटरव्यू है। लाइब्रेरी के पूर्व निदेशक आबिद रज़ा बेदार से इस बारे में बातचीत शामिल है। अपनी आवाज़ में ‘सरफऱोशी की तमन्ना’ को उन्होंने गाया भी है।
– ‘नेदा-ए-बिस्मिल’ में डॉ. शांति जैन ने लिखा है कि 1921 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में यह ग़ज़ल बिस्मिल अज़ीमाबादी ने पढ़ी थी।
– बिस्मिल अज़ीमाबादी का ग़ज़ल संग्रह ‘हिकायत-ए-हस्ती’ 1980 में छपा था। बिहार उर्दू अकादमी के सहयोग से छपे इस संग्रह की कीमत बीस रुपये थी। यह संग्रह खुदाबख्श लाइब्रेरी में उपलब्ध है।
– बीटीसी की नौवीं कक्षा की किताब ‘दरख्शां’ में लिखा गया है कि इस नज़्म की रचना बिस्मिल अज़ीमाबादी ने की थी।
– जेएनयू से बिस्मिल अज़ीमाबादी पर पीएचडी करने वाले मोहम्मद इकबाल द्वारा सम्पादित ‘कलाम-ए बिस्मिल’ में 11 मिसरे की यह ग़ज़ल छपी है।
(शाह आलम की डायरी के अंश)
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