अभिषेक श्रीवास्तव
जिस देश में हवा रात भर में बदलती है, हमारे पास फिर भी एक महीना है। हम लोग, जो कि वास्तव में फासीवाद को लेकर चिंतित हैं, जो मोदी के उभार की गंभीरता को समझ पा रहे हैं, उन्हें सच के इस क्षण में खुद से सिर्फ एक सवाल पूछने की ज़रूरत है: ”क्या हम वास्तव में वही चाहते हैं जिसके बारे में हम सोचते हैं?”
एक बहुत पुरानी कहावत है जिसका आशय यह है कि आपको जो चाहिए, वह प्राप्त नहीं हो पाने से ज्यादा बुरी इकलौती बात यह है कि वास्तव में आपका इच्छित आपको प्राप्त हो जाए। इस देश के वामपंथी बुद्धिजीवी लंबे समय से एक वास्तविक बदलाव की कामना करते आए हैं। ऐसा लगता है कि वह क्षण अब बेहद करीब आ चुका है। आज से कई साल पहले 1937 में जॉर्ज ऑर्वेल ने दि रोड टु विगन पायर में इसी प्रवृत्ति को रेखांकित करते हुए एक वाक्य लिखा था: ”हर इंकलाबी विचार अपनी ताकत का एक अंश उस गोपनीय विश्वास से हासिल करता है कि कुछ भी बदला नहीं जा सकता।” (स्लावोज जिज़ेक, लिविंग इन दि एंड टाइम्स, पेपरबैक का उपसंहार) दरअसल, इंकलाबी लोग इंकलाबी बदलाव की ज़रूरत का आह्वान एक किस्म के टोटके की तरह करते हैं जिसका उद्देश्य दरअसल उस ज़रूरत का विपरीत हासिल करना होता है- जो वास्तव में बदलाव को होने से रोक सके। इसके सहारे एक बात सुनिश्चित कर ली जाती है कि अपनी निजी जिंदगी, जो कि बेहद सुकून, आराम और सुरक्षा में बीत रही है उस पर कोई आंच न आने पाए। दूसरे, ऐसा सुनिश्चित करने के क्रम में हर एक सामाजिक स्थिति को विनाशकारी घोषित करते चला जाए और अपनी उच्चतर वैचारिक खुराक के हिसाब से कृत्रिम निर्मितियां गढ़ी जा सकें।
नरेंद्र मोदी की प्रधानमंत्री पद के लिए भाजपा की ओर से उम्मीदवारी को फासीवाद की आहट का पर्याय बताकर अवास्तविक माध्यमों में हल्ला मचाना और साथ ही सीटों का अवास्तविक गणित लगाते हुए सुकून की चादर ताने रहना कि भाजपा तो सत्ता में नहीं आ पाएगी, आ भी गई तो नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री नहीं बन पाएंगे, भारत के वामपंथी बुद्धिजीवियों का समकालीन बौद्धिक शगल है। इस शगल के पीछे की वास्तविक तस्वीर को दो खबरों से समझा जा सकता है: पहली खबर बिहार से आ रही है जहां भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेता शत्रुघ्न प्रसाद सिंह को बेगुसराय से लोकसभा का टिकट नहीं मिलने के विरोध में उन्होंने 30 मार्च को पार्टी से इस्तीफा दे दिया और महीने भर पहले राज्य की 18 में से 17 इकाइयां पार्टी के राज्य सचिव राजेंद्र सिंह को टिकट दिए जाने के खिलाफ़ पहले ही इस्तीफा दे चुकी हैं। दूसरी खबर उत्तर प्रदेश से है जहां भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से अपना राजनीतिक करियर शुरू करने वाले मलिहाबाद के नेता कौशल किशोर ने अपनी बनाई राष्ट्रवादी कम्युनिस्ट पार्टी से होते हुए भाजपा से टिकट ले लिया है। हिंदी के चर्चित लेखक काशीनाथ सिंह ने एक निजी मुलाकात में 24 मार्च को कहा था, ”मोदी अगर चुन के आ गया तो हम किसी को क्या मुंह दिखाएंगे? ये तो हमारे लिए शर्म की बात होगी। समझ नहीं आता कि दिल्ली के लेखक इतने निश्चिंत क्यों हैं। कल पंकज सिंह का फोन आया था। कह रहे थे कि निश्चिंत रहिए, भाजपा नहीं आएगी।”
बदलाव के इस ऐन क्षण में सवाल बहुत हैं। अगर सीटों के जोड़ के हिसाब से भाजपा केंद्र की सत्ता में नहीं आ रही है, तो फिर फासीवाद का इतना हल्ला क्यों है? अगर मोदी प्रधानमंत्री नहीं बनने जा रहे तो उनकी जगह फासीवाद कौन लाएगा? बुनियादी सवाल यह है कि क्या भाजपा का जीतना और मोदी का प्रधानमंत्री बनना ही फासीवाद का वाहक है या फिर फासीवाद एक प्रवृत्ति के तौर पर समाज में पहले ही आ चुका है? और अगर वास्तव में मोदी उर्फ फासीवाद इतना ही आसन्न है, तो इस समाज का फासीवाद विरोधी बौद्धिक समुदाय बदलाव के इस निर्णायक क्षण में आखिर कर क्या रहा है? अगर बनारस में बैठे काशीनाथ सिंह और दूसरे अमनपसंद लोग मोदी की आहट से इतने बेचैन हैं, तो दिल्ली के बौद्धिक गलियारों में पनप रहे आशावाद का स्रोत क्या है? ज़ाहिर है सेकुलरवाद के प्रति असद ज़ैदी और काशीनाथ सिंह की आस्थाओं में कोई फ़र्क नहीं होना चाहिए, फिर संदर्भ से काट कर बीबीसी पर प्रसारित किए गए काशीनाथ के एक साक्षात्कार पर ज़ैदी और दिल्ली के वाम बौद्धिक संप्रदाय का अचानक हुआ हमला कहीं इस तबके के करियरवाद व कृत्रिम आशावाद का डिफेंस तो नहीं है? ऐसा तो नहीं कि लंबे समय से ”भेडि़या आया, भेडि़या आया” चिल्लाता रहा इस देश हिंदी का प्रगतिशील बौद्धिक समाज वास्तव में भेडि़ए की वास्तविक पदचाप को भी अपनी वैचारिक निर्मिति ही मानकर आत्मतुष्ट और निष्क्रिय बना हुआ है जबकि असहमतियों के तमाम किले पूरब से पश्चिम तक चुपचाप दरकते जा रहे हैं?
बनारस, जहां का भूगोल और इतिहास एक-दूसरे से परस्पर गुम्फित रहा है, आज महज़ एक शहर नहीं रह गया है, बल्कि ऊपर पूछे गए सवालों का मुकम्मल जवाब बन चुका है। ये जवाब आपको सतह पर नहीं मिलेंगे। सतह पर तो जल्दबाज़ी में बनाई जा रही सड़कें हैं, बेढब फ्लाइओवर हैं, नकली डिवाइडर हैं और पांच हज़ार साल की संजोई अमूल्य गंदगी है जिसके बीच यहां जो हवा चल रही है, उसमें मोदी नाम की धूल आपकी देह के किसी भी छिद्र से भीतर प्रवेश करने को मचल रही है। ऊपर-ऊपर सिर्फ मोदी है जो वास्तव में हर-हर बरस रहा है। इस नारे से कांग्रेसी शंकराचार्य को दिक्कत हो सकती है, लेकिन बनारस की जनता को नहीं है। उसे ”हर-हर मोदी” से रोका गया, तो उसने नवरात्र से एक दिन पहले गुरुबाग के रेणुका मंदिर से ”या मोदी सर्वभूतेषु राष्ट्ररूपेण संस्थिता:” का नारा दे डाला। यह नारा लगाने वालों की एक नई फसल है जो बाबरी विध्वंस के दौर में पैदा हुई है, जिसने 1989 और 1991 के भयावह दंगे नहीं देखे हैं और जिसके भीतर अहमदाबाद का नागरिक बनने की महत्वाकांक्षा हिलोरें मार रही हैं, भले उसे पता न हो कि अहमदाबाद की दूरी बनारस से कितनी है। उसे न महादेव से मतलब है न देवी से। उसे काशी का महात्म्य नहीं पता। चुनाव आयोग कहता है ऐसी आबादी इस देश में 2.88 फीसदी है यानी करीब दस करोड़। इसकी उम्र 18 से शुरू होती है लेकिन इसका प्रभाव 50 के पार तक उन लोगों में भी जाता है जिन्होंने मदनपुरा में नज़ीर बनारसी के मकान को लपटों में घिरा देखा है। ज़रूरी नहीं कि यह भीड़ मोदी की वोटर हो, लेकिन इसकी कामयाबी इस बात में है कि यह अपने बीच खड़े किसी असहमत शख्स को भी अपनी सनक के आगोश में ले सकती है। मोदी सिर्फ एक नाम है, उसके पीछे उमड़ रही सनक दरअसल नई पूंजी के दौर में धार्मिक आस्था और राजनीतिक प्रतिबद्धता के इकट्ठे लोप से जन्मी सामाजिक फासीवादी प्रक्रिया की एक अभिव्यक्ति है। प्रथम दृष्टया निजी अनुभव से कहा जा सकता है कि इस महामारी को रोकना बहुत मुश्किल है।
घटना 22 मार्च की है। बनारस के अस्सी घाट से एबीपी न्यूज़ के चुनावी कार्यक्रम ”कौन बनेगा प्रधानमंत्री” का सीधा प्रसारण शाम आठ बजे तय था। करीब सौ एक लाल कुर्सियां लगाई गई थीं। ऐंकर अभिसार शर्मा तैयारियों में जुटे थे। लोग धीरे-धीरे इकट्ठा हो रहे थे। साढ़े सात बजे तक कुर्सियां भर गईं और लोग बेचैन होने लगे। आपसी बातचीत में सामान्यत: सभी केजरीवाल को खुजलीवाल कह कर संबोधित कर रहे थे। एक-दूसरे को बता रहे थे कि अपनी बारी आने पर उन्हें क्या सवाल पूछना चाहिए। सवाल ऐसे, कि अश्लीलता की हदों को पार कर रहे थे और एक किस्म की सामूहिक हिकारत अरविंद केजरीवाल की संभावित उम्मीदवारी (जिसकी पक्की घोषणा 25 को हुई) के प्रति देखने में आ रही थी। धीरे-धीरे यह बेचैनी इतनी बढ़ी कि ”हर-हर मोदी” के नारे लगने लगे। अभिसार शर्मा ने लोगों से कहा कि इस किस्म की हरकत काशी की संस्कृति का हिस्सा नहीं है और उन्हें उम्मीद है कि कार्यक्रम शुरू होने पर लोग नारेबाज़ी नहीं करेंगे। ऐंकर के इस निर्देश के जवाब में नारे और तेज़ हो गए। इसी बीच-बचाव में कार्यक्रम रोल हुआ। कांग्रेस के मनोज राय, सपा के कैलाश चौरसिया, बसपा के विजय जायसवाल और आम आदमी पार्टी के संजीव सिंह का परिचय करवाया गया। ऐंकर ने पहला सवाल बनारस के विकास को लेकर पूछा। पीछे से भीड़ का दबाव बढ़ा। लोग कुर्सियों से खड़े हो गए। जो पीछे खड़े थे वे आगे की ओर आने लगे। सवाल आम आदमी पार्टी के वक्ता तक पहुंचते-पहुंचते एक हल्ले में गुम हो गया और ऐसा लगा गोया दंगाइयों की कोई भीड़ पूरे परिदृश्य पर छा जाने को आतुर है। ऐंकर को घोषणा करनी पड़ी कि प्रोग्राम को जारी नहीं रखा जा सकता। वे ब्रेक पर चले गए और इसके बाद नेताओं समेत जाने कहां लुप्त हो गए। पूरे सेट पर भीड़ का कब्ज़ा था। अगले 16 मिनट तक ”मोदी मोदी” का नारा लगता रहा। कुछ लड़के होर्डिगों के ऊपर चढ़ गए, कुछ कुर्सियों पर, कुछ लोग अपने बच्चों को लेकर आए थे जो हतप्रभ खड़े देख रहे थे। जो घटना दंगे की शक्ल ले सकती थी, धीरे-धीरे उसमें सबको मज़ा आने लगा। जिनकी इस भीड़ और भीड़ की विवेकहीनता में कोई दावेदारी नहीं थी, वे भी न जाने किस मनोवैज्ञानिक दबाव में ”मोदी मोदी” चिल्लाने लगे। फिर धीरे-धीरे युवाओं के गुट बन गए जो अपनी-अपनी पोज़ीशन लेकर अलग-अलग नारे लगाने लगे। यहां किसी के भी किसी से असहमत होने की गुंजाइश नहीं थी। सब कुछ एक दिशा में जा रहा था। फ्लड लाइट बंद होने के बाद भी करीब आधे घंटे तक भीड़ जुटी रही जिसमें कौन दंगाई था ओर कौन तमाशायी, फ़र्क कर पाना मुश्किल था। यही भीड़ कुछ देर बाद अस्सी चौराहे पर मारवाड़ी सेवा संघ के बाहर प्रसिद्ध पप्पू की चाय की दुकान पर जमा हुई और सबने मिलकर आम आदमी पार्टी से सहानुभूति रखने वाले एक छात्र को इतना लताड़ा कि उसके पास वहां से जाने के अलावा कोई चारा नहीं रहा।
यही दृश्य दो दिन बाद ”आज तक” की ऐंकर अंजना ओम कश्यप के साथ दुहराया गया। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में छात्रों और छात्राओं ने उन्हें राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ाया, मोदी के विकास की खुराक दी और जब वे आक्रामक हुईं तो उनके ऊपर कूड़ा फेंक दिया गया। इस सनक की परिणति 25 मार्च को अरविंद केजरीवाल के ऊपर काल भैरव मंदिर में अंडा फेंकने और रोड शो के दौरान उनकी टीम पर काली स्याही फेंकने में हुई। स्याही फेंकने वालों की पहचान तो हिंदू सेना के रूप में हो गई, लेकिन अंडा फेंकने पर बनारस में यह दलील प्रचारित की गई कि बनारस का कोई आदमी ऐसी हरकत नहीं कर सकता और यह अरविंद के दिल्ली से लाए गए कार्यकर्ताओं का किया-धरा प्रचार स्टंट है। इसके अगले दिन अरविंद पर पत्थर उछाले गए और पांच दिन बाद हरियाणा से खबर आई कि किसी ने अरविंद को गरदन पर घूंसा जड़ दिया है। क्या महानगरों की आरामगाह में बैठे बुद्धिजीवियों के लिए यह चिंता की बात नहीं होनी चाहिए कि चुनावी लोकतंत्र में जिस व्यक्ति के इर्द-गिर्द हवा बनाई गई है, उसके खिलाफ़ एक अन्य व्यक्ति को चुनाव लड़ने से रोकने के लिए इतना कुछ किया जा रहा है? आखिर को, बनारस एक सीट ही तो है और अरविंद केजरीवाल एक और उम्मीदवार? अगर नरेंद्र मोदी का निर्विरोध होना उनका जन्मसिद्ध अधिकार बताया जा रहा हो, तो यह वाकई चिंता की बात है। क्या फासीवाद से लड़ने के लिए मोदी के चुने जाने का अब भी इंतज़ार करना होगा?
यह जो कुछ दिख रहा है, वह समझने की बात है कि दरअसल दिखाया भी जा रहा है। हो सकता है कि यह सच न हो, लेकिन इसे झूठ मान लेने से हमारे सवाल हल नहीं हो जाते। कुछ सच और हैं जो सतह के नीचे खदबदा रहे हैं, लेकिन जिन्हें दिखाने की ज़हमत कोई नहीं उठा रहा क्योंकि वह ”पॉपुलर” का अंश नहीं है। मामला ज़हमत उठाने का भी उतना नहीं है, जितना एक मिली-जुली स्कीम का है जिसके तहत टीवी कैमरों और मोदी के पीछे लगी कॉरपोरेट पूंजी के हित एक साथ सधते हैं। देश भर से बनारस आ रहे मीडिया के लिए बनारस का मतलब है गंगा के घाट, अस्सी का मोहल्ला (जिसका श्रेय बेशक अकेले काशीनाथ सिंह की पुस्तक ”काशी का अस्सी” को ही जाता है और जिसे वे खुद विडम्बना करार देते हैं), चौक-गोदौलिया के आसपास पक्का महाल का इलाका और ज्यादा से ज्यादा बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, जिसकी मीडिया में कमान कौशल किशोर मिश्र संभाले हुए हैं जो विश्व हिंदू परिषद के पुराने समर्पित कार्यकर्ता हैं। अब तक किसी चैनल को प्रोफेसर दीपक मलिक या ज्ञानेंद्रपति की याद नहीं आई है। किसी ने अफलातून से बात नहीं की है। असहमतियों को जान-बूझ कर किनारे रखा जा रहा है, और ध्यान देने की बात है कि ये असहमतियां सिर्फ नामी शक्लों के रूप में नहीं हैं, बेनाम और बेचेहरा भी हैं।
राजेश सिंह ”अभिनेता” एक ऐसे ही शख्स हैं जो कभी ठेकेदारी किया करते थे। बड़े भाई का निधन हुआ, फिर पिता गुज़र गए और अभिनेता आजकल काशीवार्ता अखबार में छिटपुट काम कर के जीवन चलाते हैं। स्थानीय लड़के उनसे मज़ा लेते हैं। ब्रह्मनाल से लेकर मणिकर्णिका के बीच किसी गली में वे सुबह के वक्त पाए जा सकते हैं। एक ऐसी ही सुबह वे मणिकर्णिका की सीढि़यों से ऊपर गली में बैठे मिल गए। कुछ लड़के उन्हें घेरे हुए अखबार पढ़ रहे थे और चिढ़ाने की मुद्रा में नरेंद्र मोदी से जुड़ी खबरें सस्वर पढ़कर सुना रहे थे। उन्होंने जवाब दिया, ”अखबार में जो लिखता है, वो हमसे-तुमसे ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं है। अखबार के चक्कर में मत पड़ो।” लड़कों ने ठहाका लगाया और मोदी का जाप करना शुरू किया। तब वे बोले, ”देखो, शेर तो दौड़ के शिकार करता है। बाज़ को जानते हो? हवा में उडते हुए ही शिकार पकड़ लेता है। बनारस के घर-घर में एक बाज़ बैठा है।” मैंने पूछा, ”किसकी बात कर रहे हैं? कौन किसका शिकार करेगा?” तो स्नेह से बोले, ”जाएदा… ज्यादा नहीं बोलना चाहिए। जब आदमी ही आदमी का शिकार कर रहा हो, तो हम क्या बोलें। समय बताएगा… अभी तो टेलर है।”
अभिनेता तो अपने नाम के अनुरूप सूत्र में बोलते हैं, लेकिन बनारस में जो जिंदगी की जंग रोज़ लड़ रहा है, वो साफ़ बोलता है। मणिकर्णिका के इसी ठीये के पीछे चाय की गुमटी लगाने वाला गुड्डू कहता है, ”मोदी अइहन त का उखडि़हन? ई कुल नेता आपस में मिलल हउवन। सब चोर हउवन। हम त वोट न देब।” वोट नहीं देने की बात यहां कई लोग कहते मिले। मसलन, यहां के मल्लाहों ने एक ताजा संगठन बनाया है। कुछ दिन पहले ही निषाद समाज की एक बैठक हुई थी जिसमें यह तय हुआ कि वोट नहीं देना है। बनारस का पान कारोबारी चौरसिया समाज पारंपरिक रूप से भाजपा का वोटर रहा है लेकिन इस बार पान बेचने वाले दुकानदारों ने वाराणसी पान बीड़ा समिति नाम का एक संगठन बना लिया है जिसमें अब तक 2100 सदस्यों का पंजीकरण हो चुका है। यह समिति भाजपा के अलावा किसी को भी वोट कर सकती है, जिसमें अधिक संभावना सपा के प्रत्याशी कैलाश चौरसिया की है। बनारस को दरअसल जो चलाता है, वह यहां का पढ़ा-लिखा मध्यवर्ग नहीं है। बनारस की अर्थव्यवस्था को चलाने वाले हैं बुनकर, ज़रदोजी के कारीगर, मल्लाह, पनवाड़ी, छोटे व्यापारी और पटेल। इनकी ओर कैमरों की निगाह नहीं जाती, जिससे नकली सच बनी-बनाई हवा में धूल की तरह आंखों में गड़ता रहता है। यह सच एकबारगी 25 मार्च को अरविंद केजरीवाल की रैली के मंच पर जब देखने को मिला, तो उन्हें खारिज करने वाले कई लोगों ने अपनी मान्यता को बनाए रखने के लिए अपने तर्क ही उलट लिए।
आम आदमी पार्टी की बेनियाबाग मैदान में हुई रैली कई वजहों से मीडिया में ”अंडररिपोर्टेड” या ”इल-रिपोर्टेड” रही, जिसमें एक वजह अरविंद का खुलकर अम्बानी और अडानी के खिलाफ़ बोलना और उनके स्विस बैंक खातों की संख्या को सार्वजनिक कर देना था। यह सही है कि रैली में जौनपुर, मिर्जापुर, आज़मगढ़ आदि शहरों में भारी संख्या में कार्यकर्ता लाए गए थे, लेकिन दिलचस्प यह रहा कि शाम साढ़े छह बजे तक चली रैली में भीड़ उतनी ही रही जितनी दोपहर दो बजे थी। तकरीबन 20,000 लोगों की रैली शहर के बीचोबीच कर देना बनारस में इतना भी आसान काम नहीं था, वो भी एक बाहरी के लिए जो शहर के बारे में कुछ भी न जानता हो। मंच से प्रतीकों की बौछार हो रही थी और ये प्रतीक एक नए सच के लिए ज़मीन तैयार कर रहे थे, जिसे मुस्लिम बहुल नई सड़क क्षेत्र का हर दुकानदार एक ही वाक्य में समेटता नज़र आया कि, ”यह बंदा लड़ेगा।” आज़ादी के दौर में बनी मोमिन कॉन्फ्रेन्स, ज़रदोज़ी-दस्तकारी समिति और वाल्मीकि समाज के प्रतिनिधियों का मंच पर होना एक असामान्य बात रही, लेकिन सबसे ज्यादा प्रतीकात्मक था बनारस के मुफ्ती का संबोधन और अपने आशीर्वाद के रूप में अरविंद को अपनी टोपी पहनाना, जिसके बदले में अरविंद ने आम आदमी पार्टी की टोपी मुफ्ती को पहनाई। इससे भी ज्यादा प्रतीकात्मक यह रहा कि संजय सिंह और अरविंद केजरीवाल दोनों ने ही अपने भाषण के दौरान हुई अज़ान के वक्त भाषण रोक दिया। राजनीति अगर प्रतीकों से चलती है, तो यह प्रतीक दूर तक जाने की ताकत रखता है। मंच के पीछे लगी मुख्य होर्डिंग पर दाहिनी तरफ़ अरविंद केजरीवाल के साथ बाईं ओर महामना मदन मोहन मालवीय की तस्वीर का आशय कुमार विश्वास ने कुछ ऐसे समझाया, ”मालवीयजी जब हैदराबाद के निज़ाम के पास बीएचयू के लिए पैसा मांगने गए थे तो उन्होंने उनके ऊपर जूती फेंक दी थी। हम बनारस में आपका विश्वास मांगने आए हैं तो हमारे ऊपर स्याही फेंकी गई है।”
बनारस में करीब तीन लाख मुसलमान वोटर हैं। शहर की किस्मत इनकी मुट्ठी में बंद है। भाजपा के बनारस में कुल एक लाख 70 हज़ार ठोस वोट हैं। आप पिछले चुनावों में भाजपा प्रत्याशियों को मिले वोट देखें, तो यह दो लाख से कुछ कम या ज्यादा ही बना रहता है। इसका मतलब ये है कि मोदी के आने से जो हवा बनी है, उससे अगर पचास हज़ार फ्लोटिंग वोट भी भाजपा में आते हैं तो करीब ढाई लाख वोट पार्टी को मिल सकेंगे। इससे निपटने के लिए ज़रूरी होगा कि मुसलमान एकजुट होकर वोट करे। अगर मुख्तार अंसारी मैदान में आ गए, तो यह संभव हो सकता है क्योंकि पिछली बार वोटिंग के दिन ही दोपहर में अजय राय और राजेश मिश्रा ने यह हवा उड़ाई थी कि मुख्तार जीत रहे हैं और पक्का महाल के घरों से लोगों को निकाल-निकाल कर मुरली मनोहर जोशी को वोट डलवाया था जिसके कारण जोशी बमुश्किल 17000 वोट से जीत पाए। अगर ऐसा नहीं किया जाता, तो जोशी हार जाते। कुछ और लोगों का मत है कि मुख्तार के आने से ही जोशी की जीत सुनिश्चित हुई थी और इस बार भी वोटों का ध्रुवीकरण हो जाएगा और नरेंद्र मोदी की जीत सुनिश्चित हो जाएगी। शहर में कांग्रेस पार्टी के युवा नेता मोहम्मद इमरान का मानना है कि मुख्तार के लिए अपने प्रचार का इससे बढि़या मौका नहीं होगा और वे मोदी से पक्का डील कर लेंगे। इधर बनारस से लेकर दिल्ली तक 25 मार्च की रात के बाद से चर्चा आम है कि मुख्तार से मोदी से कुछ करोड़ की डील कर ही ली है। अपना दल और भाजपा के बीच भी सौ करोड़ के सौदे की चर्चा है तो लखनऊ के सियासी गलियारों में पैठ रखने वाले मान रहे हैं कि राजनाथ सिंह ने पूर्वांचल में अपने उम्मीदवार मुलायम सिंह यादव से एक सौदेबाज़ी के तहत उतारे हैं। जितने मुंह, उतनी बातें। बनारस की सारी बहस मोदी और मोदी विरोधी संभावित मजबूत उम्मीदवार पर टिकी है, जिनमें ज़ाहिर है 25 मार्च के बाद एक बहस अरविंद केजरीवाल को लेकर भी शहर के मुसलमानों में शुरू हो चुकी है।
इस बहस को नज़रंदाज़ करने वालों की संख्या पर्याप्त है। जो लोग पहले कह रहे थे कि अरविंद केजरीवाल की ज़मानत जब्त हो जाएंगी, वे आज भी अपने दावे पर कायम हैं। बीएचयू के पुराने छात्र नेता और आजकल कांग्रेस पार्टी के कार्यक्रम गांव, गरीब, गांधी यात्रा के संयोजक विनोद सिंह एक मार्के की बात कहते हैं, ”अरविंद केजरीवाल कांग्रेस का नया भिंडरावाले हैं। जिस तरह कांग्रेस ने अकालियों को खत्म करने के लिए पंजाब में भिंडरावाले को प्रमोट किया था और अंतत: वह खुद कांग्रेस के लिए भस्मासुर साबित हुआ, उसी तरह केजरीवाल भी नरेंद्र मोदी के खिलाफ कांग्रेस के सहयोग से तो उतर गए लेकिन वह कांग्रेस का ही सफाया कर बैठेंगे। केजरीवाल मोदी के वोट नहीं काटेंगे, बल्कि भाजपा विरोधी वोट काटेंगे। इसके बावजूद उनकी बनारस में बहुत बुरी हार होनी तय है क्योंकि बनारस का एक-एक आदमी जानता है कि काल भैरव के दरबार में कम से कम बनारस का आदमी तो अंडा नहीं फेंक सकता। यह काम खुद केजरीवाल के वेतनभोगी कार्यकर्ताओं का किया-धरा है जिन्हें लेकर वे दिल्ली से आए थे।”
यह लेख लिखे जाने तक बनारस से कांग्रेस के प्रत्याशी की घोषणा नहीं हुई थी। अटकलें तमाम नामों पर थीं, लेकिन फिलहाल स्थानीय नामों को ही आगे माना जा रहा है। इनमें सबसे ऊपर अजय राय, फिर राजेश मिश्रा का नाम आ रहा है। बीच में एक हवा संकटमोचन के महंत विश्वम्भर मिश्र के नाम की भी उड़ी थी, जिसका जि़क्र किए जाने पर काशीनाथ सिंह ने काफी उम्मीद से कहा, ”अगर विश्वम्भर तैयार हो गए तो खेल पलट सकता है। अनंत नारायण तो तैयार नहीं होंगे। विश्वम्भर के नाम पर शहर के ब्राह्मण शायद भाजपा की जगह कांग्रेस के साथ आ जाएं, हालांकि विश्वम्भर के ऊपर न लड़ने का दबाव भी उतना ही होगा। अगर विश्वम्भर वाकई लड़ जाते हैं, तो यह अच्छी खबर होगी।” दरअसल, हरीन पाठक, कलराज मिश्र, मुरली मनोहर जोशी से लेकर लालमुनि चौबे तक के साथ भाजपा के भीतर जो बरताव किया गया है, उसे लेकर उत्तर प्रदेश के ब्राह्मणों के भीतर एक रोष है। ब्राह्मणों को लग रहा है कि राजनाथ सिंह अपने राज में सिर्फ ठाकुरों को प्रमोट कर रहे हैं। इसीलिए ब्राह्मण भीतर ही भीतर किसी विकल्प की तलाश में हैं और आज की स्थिति में यह बहुत संभव है कि ब्राह्मणों का वोट बसपा और कांग्रेस के बीच बंट जाए। तब मोदी की जीत की राह इतनी आसान नहीं रहेगी, जितनी उनकी बनाई हवा में दिख रही है।
मोदी की जीत की राह में दो अन्य आशंकाएं प्रबल हैं जिन पर बनारस में चर्चा हो रही है। पहली आशंका तो यही है कि मोदी अगर बनारस से जीत भी गए तो वे अपनी सीट वड़ोदरा के लिए छोड़ देंगे। शहर में ऑटो चलाने वाले मोदी के कट्टर समर्थक लालजी पांडे कहते हैं, ”अगर मोदी बनारस क सीट छोड़लन, त समझ ला कि बनारस से भाजपा क पत्ता हमेशा बदे साफ हौ।” इसी बात को रोहनिया स्थित शूलटंकेश्वर महादेव मंदिर के पुजारी कुछ यूं कहते हैं, ”मोदी मने विकास। जब मोदिये न रहिहें त विकास कवने बात क। तब त सोचे के पड़ी। आपन वोट खराब कइले कवन फायदा।” एक दूसरी आशंका भाजपा और संघ को जानने-समझने वाले पढ़े-लिखे लोगों में प्रबल है। संघ चितपावन ब्राह्मणों की संस्था है जिसमें कभी भी कोई गैर-ब्राह्मण सत्ता के शीर्ष पर नहीं रहा है। कल्याण सिंह, विनय कटियार और उमा भारती के उदाहरण इस बात की ताकीद करते हैं कि पिछड़ा और दलित कभी भी भाजपा अथवा संघ में नेतृत्वकारी पद तक नहीं पहुंच सकता और पहुंच भी गया तो टिक नहीं सकता। ज्यादा से ज्यादा उसका इस्तेमाल किया जाता है। यह बात कुछ लोगों को भीतर से हिलाए हुए है।
चुनावी समीकरणों पर तो फिलहाल सिर्फ अटकल ही लगाई जा सकती है। सबके अपने-अपने विश्लेषण हैं और हर विश्लेषण खेमेबंदी का शिकार है। जिनका कोई राजनीतिक खेमा नहीं है, वे मोदी को बनारस से सिर्फ इसलिए जितवाना चाहते हैं क्योंकि वे अपने शहर से इस देश का प्रधानमंत्री चुनकर भेजना चाह रहे हैं। बनारस की सामान्य सवर्ण जनता यही सोचती है। दरअसल, बनारस के लोग भी मानते हैं कि यहां पर सांसद, विधायक, पार्षद आदि सब भारतीय जनता पार्टी से लंबे समय से होने के बावजूद विकास का काम नहीं हुआ है। बिजली विभाग से इसी साल लेखपाल के पद से रिटायर हुए एक कट्टर मोदी समर्थक का कहना है, ”जोशी यहां से लड़ते तो पक्का हार जाते। भाजपा को लोग पसंद थोड़े करते हैं। वो तो मोदी आ गए, इसलिए उनके नाम का इतना हल्ला है। उसके बोलने की कला, साहस, साफ़गोई, बोल्डनेस, कड़कपन, यही सब लोगों को भा रहा है। लोगों को अब भाजपा-वाजपा, जाति-धर्म से मतलब नहीं है। बस कैंडिडेट का मामला है। मोदी को जिताकर प्रधानमंत्री बनवाना है। यही बनारस का एजेंडा है।” और मोदी का एजेंडा बनारस में क्या है? इस सवाल पर वे सतर्क हो जाते हैं, ”मोदी का क्या एजेंडा होगा? वो जानता है कि बनारस से लड़ेगा तो पूरे पूर्वांचल की सीटों पर लहर चलेगी। एक कैंडिडेट पूरे इलाके को अपने पक्ष में कर रहा है, इसके अलावा और क्या एजेंडा होगा?” और दंगे? यहां फिर से दंगा हुआ तो? वे कहते हैं, ”ना ना… वो जमाना गया। अब लोग जाति-धर्म से काफी ऊपर उठ चुके हैं। लोगों को विकास चाहिए। विकास के लिए मोदी चाहिए।” क्या आप गुजरात के विकास के बारे में कुछ जानते हैं? ”आप ही लोग तो बताते हो। मीडिया ने ही हल्ला किया है विकास का। मैं तो गुजरात गया नहीं। मीडिया कहता है तो सही ही होगा।”
यह एक दुश्चक्र है। मोदी मतलब विकास और विकास की यह कहानी मीडिया ने लोगों को बताई है। अरविंद केजरीवाल इसी कहानी का प्रत्याख्यान गढ़ रहे हैं। तमाम एनजीओ गुजरात के विकास का सच अपने-अपने तरीके से लोगों को समझाने में जुटे हैं। एक पुस्तिका भी कुछ संगठनों द्वारा बाज़ार में उतारी गई है। दिलचस्प यह है कि जिस फासीवाद का नाम लेकर मोदी को एक्सपोज़ करने का अभियान चलाया जा रहा है, वह लोगों को समझ नहीं आता। इससे ज्यादा दिलचस्प यह है कि वैकल्पिक मीडिया और मुख्यधारा के मीडिया में मौजूद असहमति के अधिकतर स्वर अंग्रेज़ी के हैं, जिनका बनारस या कहें समूचे उत्तर भारत के ज़मीनी मानस से कोई लेना-देना नहीं है। काशीनाथ सिंह कहते हैं, ”हमने आज तक जनता से कम्युनिकेट ही नहीं किया। दुर्भाग्य से कम्युनिस्ट पार्टियां अपनी करनी से खत्म होती गईं। अब भुगतना तो पड़ेगा।”
मीडिया, विकास और मोदी के इस त्रिकोण से बाहर कुछ वास्तविक प्रयास भी किए जा रहे हैं, हालांकि उनका वज़न भी उतना ही हवाई है जितना नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री बनना। एक कोशिश की गई थी कि मोदी के खिलाफ गांधीवादी संदीप पाण्डे को बनारस से उतारा जाए। समाजवादी जन परिषद के नेता अफलातून की यह कोशिश तो रंग नहीं ला सकी, लेकिन उन्होंने इतना कर दिया है कि साझा संस्कृति मंच के बैनर तले बीते 26 मार्च को बनारस के जिलाधिकारी को एक ज्ञापन सौंपा है जिसमें मीडिया द्वारा बनारस की भ्रामक रिपोर्टिंग को रोकने की गुहार लगाई गई है। साझा संस्कृति मंच वही संगठन है जिसने बाबरी विध्वंस के बाद और दीपा मेहता की फिल्म का सेट तोड़े जाने के बाद शहर में सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल कायम की थी। एक बार फिर वह सक्रिय हो रहा है। काशीनाथ सिंह बताते हैं कि एक परचा तैयार किया जा रहा है नरेंद्र मोदी के खिलाफ, और वे प्रलेस, जलेस व जसम जैसे संगठनों के संपर्क में भी हैं। कोशिश यह भी की जा रही है कि 12 मई के मतदान से कम से कम बीस दिन पहले रंगमंच, संस्कृति और फिल्म के क्षेत्र से कुछ सेकुलर सेलिब्रिटी चेहरों को बनारस में लाकर कुछ दिन ठहराया जाए। काशी कहते हैं कि इस बार जबकि बनारस को सबसे ज्यादा बिस्मिल्ला खान और नज़ीर बनारसी की ज़रूरत थी, दोनों की कमी बहुत अखरेगी।
बनारस में फिलहाल जो स्थिति है, जैसा हमने ऊपर देखा, उससे कुछ ठोस जवाब तो मिल ही सकते हैं। पहली बुनियादी बात तो यह है कि फासीवाद के पर्याय के तौर पर नरेंद्र मोदी नाम के व्यक्ति से खतरा उतना वास्तविक नहीं है जितना कि उनके नाम पर फैलाई जा रही फासीवादी प्रवृत्तियों से है। हाल में मोदी पर हमले के नाम पर हुई कुछ कथित आतंकियों की गिरफ्तारी छोटा सा उदाहरण भर है। नरेंद्र मोदी का केंद्र में आना या न आना- दोनों ही स्थितियों में अगले एक माह के भीतर देश का सामाजिक ताना-बाना उस तेजी से बिखरेगा जितना यह पिछले दस साल में नहीं हुआ। अगर मोदी प्रधानमंत्री बन गए, तो उन्हें फासीवाद की पकी-पकाई फसल काटने को मिल जाएगी और हमारे पास सोचने का वक्त शायद नहीं बचेगा। अगर वे नहीं भी आए, तो इस दौरान समाज का हुआ तीव्र फासिस्टीकरण किसी दूसरी सत्ता को निरंकुश होने में उतनी ही ज्यादा आसानी पैदा करेगा। दोनों ही स्थितियां नवउदारवादी प्रोजेक्ट और वित्तीय पूंजी के हित में होंगी, चाहे वे सेकुलरवाद के नाम पर कांग्रेस द्वारा पैदा की जाएं या मोदी के नाम पर भाजपा के द्वारा। इस लिहाज़ से मोदी एक ऐसा दुतरफा औज़ार हैं जिसे लोकसभा चुनाव 2014 नाम की सान पर बस धार दी जा रही है। यह औज़ार दोनों तरफ से काटेगा, इसलिए सीटें गिनवा कर और चुनावी गणित लगाकर अपनी-अपनी आश्वस्तियों के स्वर्ग में बने रहने का फिलहाल कोई अर्थ नहीं है।
अर्थ के लिए एक बार फिर जिज़ेक की पुस्तक ”लिविंग इन दि एंड टाइम्स” के उपसंहार से हम वाक्य उधार लेंगे: ”हमारे संघर्ष को उन पहलुओं पर केंद्रित होना चाहिए जो ट्रांसनेशनल सार्वजनिक वृत्त (पब्लिक स्फीयर) को खतरा पैदा कर रहे हैं।” जिज़ेक कहते हैं कि यह खतरा एक स्तर पर संगठित साइबरस्पेस के भीतर ”आम बौद्धिकता” के निजीकरण के रूप में भी अभिव्यक्त हो रहा है (फेसबुक, ट्विटर, क्लाउड कंप्यूटिंग, इत्यादि)। वे कहते हैं कि हमें हर उस बिंदु पर कम्युनिस्ट संघर्ष को संगठित करना होगा जहां सामाजिक तनाव इसलिए हल नहीं हो पा रहा है क्योंकि वह तनाव दरअसल ”नकली” है, जिसका नियामक विचारधारात्मक धुंध में तय किया जा रहा है। एक आंदोलन के तौर पर कम्युनिज़्म को ऐसे हर गतिरोध में दखल देना चाहिए जिसका सबसे पहला कार्यभार यह हो कि वह समस्या को नए सिरे से परिभाषित करे तथा सार्वजनिक विचारधारात्मक स्पेस में समस्या को जिस तरीके से प्रस्तुत किया जा रहा है और जिस तरीके से समझा जा रहा है, सीधे उसे खारिज करे।
पहला मतदान 7 अप्रैल को है और आखिरी 12 मई को। जिस देश में हवा रात भर में बदलती है, हमारे पास फिर भी एक महीना है। हम लोग, जो कि वास्तव में फासीवाद को लेकर चिंतित हैं, जो मोदी के उभार की गंभीरता को समझ पा रहे हैं, उन्हें सच के इस क्षण में खुद से सिर्फ एक सवाल पूछने की ज़रूरत है: ”क्या हम वास्तव में वही चाहते हैं जिसके बारे में हम सोचते हैं?”
(समकालीन तीसरी दुनिया के अप्रैल अंक से साभार)
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