अभिषेक श्रीवास्तव
पिछले साल 7 दिसंबर को ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ ने छत्तीसगढ़ सरकार के बारे में पहले पन्ने पर एक विस्फोटक रिपोर्ट छापी थी। आशुतोष भारद्वाज की लिखी इस रिपोर्ट की शुरुआत हिंदी टीवी समाचार चैनल सहारा समय द्वारा मई 2010 में राज्य सरकार को दिए गए पांच सूत्रीय एक कारोबारी प्रस्ताव से होती है जिसके मुताबिक समाचार बुलेटिन से लेकर टीवी स्क्रीन के अलग-अलग हिस्सों में छत्तीसगढ़ सरकार की योजनाओं, मुख्यमंत्री रमण सिंह की रैलियों और सरकार समर्थक खबरों को प्रस्तुत करने के लिए एक निश्चित रकम मांगी गई थी। ऐसा पहली बार नहीं हुआ था। तीन साल से इस किस्म का परस्पर समझौता टीवी चैनलों और राज्य सरकार के जनसंपर्क विभाग के बीच चला आ रहा था, लिहाजा इस प्रस्ताव का स्वीकृत होना तय था। इंडियन एक्सप्रेस का दावा है कि उसके पास टीवी चैनलों के संपादकों और राज्य सरकार के जनसंपर्क विभाग के बीच हुए पत्राचार और समझौतों संबंधी ऐसे 200 पृष्ठ के दस्तावेज मौजूद हैं जो कारोबार और पत्रकारिता के बीच अनैतिक रिश्ते को उजागर करते हैं। जिस समय यह रिपोर्ट छपी, ज़ी न्यूज़ द्वारा नवीन जिंदल से कोयला घोटाले में उनका नाम छुपाने के लिए 100 करोड़ की रिश्वत मांगे जाने और उसके रिवर्स स्टिंग की चर्चा गरम थी। इसके बावजूद एक्सप्रेस की इस बेहद प्रासंगिक रिपोर्ट पर कहीं कोई चर्चा नहीं हुई, बल्कि इसके उलट रमण सिंह की सरकार ने रिपोर्ट को कपोल कल्पित और भ्रामक करार देते हुए अखबार पर आरोप लगा दिया कि अंग्रेजी दैनिक ने उसके विशेषांक निकालने का प्रस्ताव नहीं माने जाने पर चिढ़ के कारण ये आरोप लगाये हैं। राज्य सरकार ने कहा कि वह पेड न्यूज़ को कतई बढावा नहीं देती और उक्त अंग्रेजी दैनिक को भी उसी नीति से विज्ञापन मिलते हैं जिसके आधार पर अन्य मीडिया संस्थानों को दिये जाते हैं। राज्य सरकार ने रायपुर में जारी एक बयान में कहा, ”… समय-समय पर छत्तीसगढ़ शासन द्वारा उसे अल्प अवधि में ही 54.50 लाख के विज्ञापन स्वीकृत किए गए हैं। इसके अलावा जनसम्पर्क विभाग ने वर्ष 2011 एवं 2012-13 में निविदा सूचना पर आधारित लगभग 42 लाख रुपए तथा छत्तीसगढ़ संवाद के माध्यम से विभिन्न निगम मंडलों के तकरीबन 4 लाख 44 हजार रुपए के विज्ञापन दिए तथा लगभग 40 लाख रुपए के वर्गीकृत विज्ञापन जारी किए हैं।” बयान में आरोप लगाया गया है कि उक्त अंग्रेजी दैनिक का प्रबंधन कपोल कल्पित समाचार प्रकाशित कर यह भ्रामक संदेश देना चाहता है कि छत्तीसगढ़ शासन मीडिया को विज्ञापन देकर उसे अपने प्रभाव में रखना चाहता है जबकि स्वयं वह अखबार भी ऐसे विज्ञापन इस प्रकार की पहल कर हासिल करता रहा है।
सवाल उठता है कि आखिर इस तरह के कारोबारी समझौतों की हकीकत क्या है? ध्यान रहे कि ज़ी न्यूज़ और जिंदल के बीच जो टकराव हुआ और जिसके परिणामस्वरूप चैनल के दो संपादक सुधीर चौधरी और समीर अहलूवालिया जेल भी गए, उसकी पृष्ठभूमि में भी छत्तीसगढ़ ही है जहां के रायगढ़ जिले में लंबे समय से जिंदल के स्टील संयंत्र के खिलाफ आंदोलन चल रहा है। टीवी चैनलों द्वारा सरकार समर्थक खबर दिखाने के लिए पैसा वसूलने और राज्य सरकारों व नेताओं द्वारा उनके कारोबारी प्रस्तावों को मंजूरी देने के बीच न सिर्फ घोटालों में संलिप्तता को छुपाने की मंशा है (जैसा कि नवीन जिंदल के मामले में बात है) बल्कि इस कवायद के गहरे तार विस्थापन विरोधी जल, जंगल और ज़मीन के आंदोलन से भी जुड़े हैं। पिछले साल 25 अक्टूबर को जब नवीन जिंदल ने ज़ी न्यूज़ के संपादकों के रिवर्स स्टिंग की सीडी दिल्ली की एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में जारी की थी, वहां एक ऐसे शख्स की असामान्य मौजूदगी थी जिसके बारे में मीडिया में पिछले दो साल से खबरें रुक-रुक कर आती रही थीं। यह सज्जन रायगढ़ में रहने वाले 56 साल के आरटीआई कार्यकर्ता रमेश अग्रवाल थे। याद करें कि उनकी एक दिल दहला देने वाली तस्वीर जून 2011 में अखबारों में प्रकाशित हुई थी जिसमें उन्हें अस्पताल के बिस्तर से सिक्कड़ से बंधा हुआ दिखाया गया था। उनके ऊपर कुछ बदमाशों ने सरेराह गोली चलाई थी जिसके बारे में अग्रवाल का आरोप था कि गोली जिंदल ने चलवाई है क्योंकि वे लंबे समय से उनके संयंत्र का विरोध कर रहे हैं। ठीक यही बात रमेश अग्रवाल ने 25 अक्टूबर को व्हील चेयर से जिंदल की प्रेस कॉन्फ्रेंस में पहुंच कर मीडिया के सामने उछाल दी जिसके चलते पिछले दरवाज़े से नवीन जिंदल को मुंह छुपा कर भागना पड़ा। प्रेस कॉन्फ्रेंस में हंगामे की यह खबर कई जगह आई थी, लेकिन ज़ी न्यूज़ की वेबसाइट पर इसे रायगढ़ और ज़ी न्यूज़ ब्यूरो की डेटलाइन से छापा गया जबकि अग्रवाल दिल्ली में थे (देखें http://zeenews.india.com/news/nation/naveen-jindal-hired-contract-killers-to-murder-me-rti-activist-agrawal_806524.html)।
इन घटनाओं को ज़रा एक साथ रख कर देखिए: दो लाख करोड़ के घोटाले में फंसा एक कारोबारी जो सांसद भी है, एक न्यूज़ चैनल जिसका मालिक और संपादक दोनों उसी के संसदीय क्षेत्र से आते हैं, एक आरटीआई कार्यकर्ता जो एक साल बाद अचानक दिल्ली पहुंच कर दावा करता है कि उस पर गोली चलवाई गई थी और बाद में एक अखबारी रिपोर्ट जो सारे मीडिया को कठघरे में खड़ा कर देती है- इनके आपसी संबंध को कैसे समझा जाए? मीडिया और सत्ता की इस आंखमिचौली में समझने के लिए और भी कई चीज़ें हैं, मसलन कोयला घोटाले के पूरे अध्याय में दैनिक भास्कर इकलौता अखबार रहा जिसने किसी भी संस्करण में इस घोटाले से जुड़ी एक भी खबर नहीं छापी। जिस दौरान सारे अखबारों के पहले पन्ने पर और टीवी चैनलों की पहली हेडलाइन में कोयला घोटाला छाया हुआ था, भास्कर समूह अपने कॉल सेंटरों के माध्यम से हरियाणा के अपार्टमेंट बेचने के लिए पत्रकारों को फोन करवा रहा था। कुछ और पत्रकारों के अलावा एक फोन इस लेखक के पास भी 30 अक्टूबर को आया था जिसमें गुड़गांव और हिसार में दैनिक भास्कर समूह के बनाए अपार्टमेंट खरीदने का प्रस्ताव दिया गया था। बताते चलें कि कोयला घोटाले से भास्कर समूह के हित गहरे जुड़े हैं क्योंकि छत्तीसगढ़ के ही धरमजयगढ़ में उसे एक कोयला खदान मिला हुआ है जिस पर स्थानीय लोगों के विरोध के बाद काम रुका पड़ा है। भास्कर समूह को डर था कि कहीं उसका प्रोजेक्ट भी सीबीआई के फंदे में न फंस जाए। ज़ी न्यूज़ के अंदरूनी सूत्र बताते हैं कि ठीक यही डर ज़ी समूह के मालिक सुभाष चंद्रा को भी था, क्योंकि इसी समूह के एक और मालिकान लक्ष्मी गोयल की पत्नी के नाम पर कोई कोयला खदान आवंटित हुआ था और कोयला घोटालेबाज़ों की सूची में उसका भी नाम था। अब ज़रा विस्तार से देखिए कि दोनों मीडिया समूहों ने कैसे इस मामले से निपटने की रणनीति बनाई और राज्य समेत आंदोलन की ताकत का भी इस्तेमाल कैसे किया।
ज़ी के सूत्र बताते हैं कि सुधीर चौधरी को ज़ी न्यूज़ में बिज़नेस प्रमुख और संपादक बनाकर लाए जाने के पीछे दरअसल लक्ष्मी गोयल के कोयला खदान को बचा ले जाने की मंशा थी क्योंकि सुधीर चौधरी के कांग्रेस की किचेन कैबिनेट के कुछ सदस्यों से तथाकथित अच्छे संबंध हैं। ठीक यही काम भास्कर समूह ने अमित मिश्रा को डिप्टी एडिटर के पद पर लाकर किया। भास्कर समूह के कुछ अंदरूनी सूत्रों के मुताबिक अमित मिश्रा सीधे कांग्रेसी नेता अहमद पटेल द्वारा भास्कर में रखवाए गए थे ताकि कोयला घोटाले की खबरों को मैनेज किया जा सके और बदले में भास्कर का धरमजयगढ़ प्रोजेक्ट बच जाए। संयोग देखिए कि अमित मिश्रा का करियर रिकॉर्ड भी ज़ी न्यूज़ तक जाता है। वे कुछ साल पहले ज़ी में काम कर चुके हैं। यह बात अलग है कि कि उनके बारे में मीडिया में कहीं कोई चर्चा नहीं हुई, सिवाय भास्कर की आलोचना के कि उसने कोयला घोटाले को क्यों अपने यहां दबा दिया। दैनिक भास्कर में चूंकि मिश्रा सीधे अहमद पटेल के नॉमिनी थे, इसलिए लेन-देन से जुड़ा कोई मामला सामने नहीं आया। यहां डीलिंग सीधे सरकार के साथ थी। ज़ी न्यूज़ ने गलती यह कर दी कि अपने बिज़नेस प्रमुख को नवीन जिंदल के पास भेज दिया। नवीन जिंदल शुरुआत में 25 करोड़ पर अपने खिलाफ खबरें रुकवाने पर राज़ी हो गए थे, लेकिन शायद चंद्रा-चौधरी-अहलूवालिया की मति मारी गई थी कि उन्होंने अगली मीटिंग में 100 करोड़ की मांग कर दी और उलटे जिंदल के स्टिंग में फंस गए। जब 25 अक्टूबर को जिंदल दिल्ली की प्रेस कॉन्फ्रेंस में रिवर्स स्टिंग की सीडी जारी कर रहे थे, रमेश अग्रवाल को अचानक वहां पहुंचा देख कर कई पत्रकारों को आश्चर्य हुआ, जो उनकी कहानी से वाकि़फ़ हैं। यह बात ज़ी न्यूज़ के भीतर के कई लोगों को भी पता नहीं थी कि ऐसा होने वाला है। अग्रवाल के हल्ला मचाने के बावजूद ज़ी के अलावा और किसी मीडिया ने उन्हें तवज्जो नहीं दी। अगले दिन यानी 26 अक्टूबर की सुबह रमेश अग्रवाल को इस लेखक ने फोन किया तो फोन उनके बेटे ने उठाया। परिचय पूछने के बाद उन्होंने अग्रवाल को फोन दिया। अग्रवाल के मुताबिक वे दिल्ली के राकलैंड अस्पताल में अपना इलाज करवने आए हुए थे और 25 तारीख को जिंदल के बंगले पर एक ज्ञापन देने गए थे, जहां अचानक उन्होंने पाया कि जिंदल प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रहे हैं और वे सीधे वहीं चले गए। एक बात समझ में नहीं आती कि जिंदल यदि अग्रवाल पर जानलेवा हमला साल भर पहले करवा चुका थे, जैसा कि अग्रवाल का दावा है, तो उनका ऐसे शख्स के पास ज्ञापन देने जाना कितना व्यावहारिक जान पड़ता है? रमेश अग्रवाल की उस दिन प्रेस कॉन्फ्रेंस में मौजूदगी अब भी रहस्य बनी हुई है, हालांकि इसका प्रत्यक्ष लाभ अगर किसी को भी मिलता दिखता है तो वह ज़ी न्यूज ही है। जैसा कि शुरुआत में हमने कहा, सत्ता और मीडिया के बीच रिश्वतखोरी और दलाली का मामला इतना सीधा नहीं है बल्कि इसमें आंदोलनों का भी एक पेंच है, और इसे समझा जाना कहीं ज्यादा ज़रूरी है।
दरअसल, सन 2006 में मुख्यमंत्रियों के एक सम्मेलन में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बड़े काम की एक बात कही थी और ऐसे सारे प्रसंगों को समझने की कुंजी वहीं है। मनमोहन सिंह ने मुख्यमंत्रियों को ”मीडिया को कोऑप्ट’ करने की रणनीति पर काम करने को कहा था। कोऑप्ट करना यानी अपने पाले में ले लेना। अब पाले में लेने के लिए क्या तरीके अपनाए जाएं, इसे प्रधानमंत्री ने राज्य सरकारों की स्वेच्छा पर छोड़ दिया था। आशुतोष भारद्वाज ने 7 दिसंबर की एक्सप्रेस की रिपोर्ट में जो दावा किया है कि उनके पास 2007 से 2012 के बीच जनसंपर्क विभाग द्वारा बनाई गई मीडिया नीति से संबंधित पांच साल के दस्तावेज़ मौजूद हैं, यह अनायास नहीं है। मीडिया को कोऑप्ट करने की सरकारों द्वारा सक्रिय कोशिश 2007 से ही संस्थागत तरीके से शुरू हुई है, खासकर छत्तीसगढ़ के मामले में तो ऐसे साक्ष्य हैं ही। सारे प्रसंगों के केंद्र में छत्तीसगढ़ के होने की भी एक बड़ी वजह है। वहां 2005 के बाद से जिस तरह आदिवासियों की जीवन स्थिति बिगड़ी है, जिस तरह दोनों प्रमुख पार्टियों की सहमति से सलवा जुड़ुम नाम की कत्लोगारत मचाई गई, ग्रीन हंट के नाम पर चुन-चुन कर आदिवासियों को माओवादी बता कर बंद किया गया। मामला सिर्फ राज्य सरकारों को केंद्र द्वारा मीडिया को वश में करने के लिए दिए गए नुस्खों तक सीमित नहीं है, बल्कि केंद्रीय गृह मंत्रालय समय-समय पर पुलिस विभागों को भी इस संबंध में निर्देश जारी करता है। यदि 2010-11 की गृह मंत्रालय की सालाना रिपोर्ट पर नज़र डालें, तो अध्याय 5 और अध्याय 12 में मीडिया के साथ काम करने के संबंध में कुछ काम की बातें दिखती हैं। रिपोर्ट के अध्याय 12 के पृष्ठ 226 पर एक उपशीर्षक है ”एडवायज़री ऑन मीडिया पॉलिसी ऑफ पुलिस” जिसके तहत 15 बिंदु दर्ज हैं। 1 अप्रैल 2010 को जारी इस एडवायज़री में पुलिस को साफ निर्देश हैं कि संवेदनशील मुद्दों पर मीडिया के साथ कैसा बरताव किया जाना है। एक तरफ प्रधानमंत्री द्वारा मीडिया को ‘कोऑप्ट’ करने और दूसरी तरफ गृह मंत्रालय द्वारा मीडिया पर दबाव बनाने की सलाह वाली दोहरी रणनीति दरअसल पुरानी ‘कैरट एंड स्टिक’ नीति का ही नया संस्करण है। ‘कैरट’ के नाम पर मीडिया को विज्ञापन और पेड न्यूज़ दिया जाता है और ‘स्टिक’ के नाम पर जहां कहीं मीडिया सरकारी हदों को लांघने की कोशिश करे, वहां उसे काबू में रखा जाता है। ऐसी नीति खासकर जम्मू और कश्मीर, पूर्वोत्तर और नक्सल प्रभावित राज्यों में ज्यादा स्पष्टता से लागू की जाती है जहां सरकारों के प्रति जनता में आक्रोश है। मीडिया भी इस नीति का लाभ किन्हीं मामलों में अपने पक्ष में उठाता है, जैसा कि हमने ज़ी न्यूज़-जिंदल प्रकरण में पाया है।
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट पर एक बार फिर लौटते हैं और याद करते हैं कि कैसे छत्तीसगढ़ सरकार ने माओवाद संबंधी खबरों का प्रसारण अनुकूलित करने के लिए मीडिया को खरीदने का काम किया। रिपोर्ट के मुताबिक ज़ी न्यूज़ के फ्रैंचाइज़ी ज़ी 24, सहारा समय, ईटीवी और साधना न्यूज़ समेत कुछ और छोटे क्षेत्रीय व स्थानीय चैनल इस कारोबार में लिप्त रहे हैं। छत्तीसगढ़ जनसंपर्क विभाग आयुक्त एन. बैजेंद्र कुमार का यह बयान 2006 में प्रधानमंत्री द्वारा जारी एडवायज़री की ही पुष्टि करता है, ”नक्सलियों का शहरी नेटवर्क मीडिया का इस्तेमाल अपनी विचारधारा के समर्थन में करने में सक्षम है, जिसके चलते सरकारी अफसरों के प्रयास और नक्सली हिंसा से जुड़ी मानवीय खबरें मीडिया में नहीं आ पाती हैं। इसीलिए इन्हें प्रसारित करवाने का काम हम करते हैं।” ज़ी 24 के संपादक अभय किशोर का भी बयान देखिए, ”हम उनके समक्ष समर्पण नहीं कर रहे, बल्कि विकास संबंधी खबरों के लिए उन्हें अपने मंच का बस इस्तेमाल करने दे रहे हैं। अगर हम पेड न्यूज़ दिखाते, तो तीन साल से यहां पहले स्थान पर नहीं बने रहते। हमने सरकार के खिलाफ कई खबरें चलाई हैं।” अभय किशोर का यह बयान अपने आप में विरोधाभासी है कि बिना पेड न्यूज़ दिखाए वे तीन साल से पहले स्थान पर बने हुए हैं। बहरहाल, छत्तीसगढ़ के मामले में टीवी चैनलों ने वास्तव में सरेंडर कर दिया है और इस बात का साक्ष्य 2011 की वह घटना है जब ईटीवी छत्तीसगढ़/मध्यप्रदेश ने रमण सिंह की आलोचना करते हुए एक खबर चलाई थी, जिसकी प्रतिक्रिया में सरकार ने ईटीवी का प्रसारण राज्य के अधिकतर हिस्सों में रुकवा दिया था। उस वक्त ईटीवी सरकार के खिलाफ कोर्ट में भी गया था, लेकिन फिलहाल तो उस पर प्रायोजित खबरों के लिए सरकार से पैसे लेने का आरोप लग चुका है। इस सिलसिले की शुरुआत अनौपचारिक रूप से तो तभी हो गई थी जब सन 2000 में मध्यप्रदेश को काट कर छत्तीसगढ़ का गठन किया गया था। इसके बाद ही केंद्रीय पर्यावरण राज्य मंत्री दिलीप सिंह जूदेव कैमरे पर पैसे लेते पकड़े गए थे। एक ऑस्ट्रेलियाई कंपनी को खनन की मंजूरी देने के एवज में उन्होंने रिश्वत ली थी। इसके बाद राजनांदगांव के एक सांसद प्रदीप गांधी को लोकसभा में सवाल पूछने के एवज में पैसे लेते एक स्टिंग में पकड़ा गया। ये वही नेता हैं जिन्होंने 2004 में विधायक के पद से इसलिए इस्तीफा दे दिया था ताकि रमण सिंह विधानसभा में जा सकें। इसका पुरस्कार भी उन्हें मिला और 2008 में पार्टी में उन्हें वापस ले लिया गया। ऐसे मामलों की फेहरिस्त लंबी है। हाल ही में कनाडा की एक कंपनी ने राज्य में नंबर दो पीडब्लूडी मंत्री बृजमोहन अग्रवाल पर 44 मिलिसन डॉलर का ठेका देने के बदले 1 मिलियन डॉलर की रिश्वत मांगने का आरोप लगाया था। अग्रवाल तो मुकर गए, लेकिन कंपनी ने अपने दूतावास के माध्यम से शिकायत दर्ज करवा दी। ऐसी घटनाएं साफ करती हैं कि प्राकृतिक संपदा की लूट और संघर्ष वाले क्षेत्रों में किस तरह निजी कंपनियों, सरकारों और मीडिया का पूरा नेटवर्क आपसी हितों के लिए काम करता है और सूचना के पूरे कारोबार पर कैसे पूंजी और राष्ट्रीय सुरक्षा नीति का दबाव है।
कंपनियों के हित, सरकारों की नीति, मीडिया के लालच और पत्रकारों की दलाली का एक और अहम आयाम है मीडिया के स्वामित्व का चरित्र। यह बात अलग है कि एनडीटीवी जैसा सबसे साफ-सुथरा दिखने वाला चैनल भी जिंदल को अपना 26 फीसदी बेच चुका है और बदलाव की पत्रकारिता करने का दावा करने वाले एक्सप्रेस पर भी रमण सिंह के आरोप हैं, लेकिन हाल के वर्षों में जिस तरह से मीडिया में छोटे-छोटे समूह कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं, उन पर बात किए बगैर पेड न्यूज़ और कंटेंट-राजस्व के समीकरण को पूरी तरह नहीं समझा जा सकता। हाल के दिनों में मीडिया में तीन तरह के लोगों ने उद्यम शुरू किया है- रियल एस्टेट, चिटफंड और नेता व उनके सगे-संबंधी। आज तीन सौ से ज्यादा चैनल बाज़ार में हैं और अधिकांश घाटे में चल रहे हैं। सत्ता समीकरण में अपनी जगह बनाने के लिए कुछ करोड़ की संपत्ति वाले उद्यमी भी इस धंधे में उतर जा रहे हैं, लेकिन चैनलों को टिका नहीं पा रहे। इस संबंध में तहलका ने 15 सितंबर के अपने अंक में एक आवरण कथा ”मीडिया मजूरी” के नाम से की थी। इसके लेखक अतुल चौरसिया लिखते हैं, ”चैनलों का अस्तित्व में आना और उनका मुनाफे में तब्दील होना दो अलग स्थितियां हैं। महज कुछ महीनों पहले तक हर वह व्यक्ति न्यूज चैनल का लाइसेंस पा सकता था जिसकी जेब में तीन करोड़ रुपये और एक पीआईबी कार्डधारक पत्रकार हो। अक्टूबर, 2011 में जाकर सरकार ने न्यूज चैनल के लाइसेंस के लिए नेट वर्थ क्राइटेरिया तीन से बढ़ाकर 20 करोड़ किया है, हालांकि सूचना प्रसारण मंत्रालय के अधिकारियों की मानें तो अब भी लाइसेंस की इच्छा रखने वालों की कतार छोटी नहीं हुई है… समस्या सरकारी नीति के स्तर पर है। इसने थोक के भाव में लाइसेंस बांट दिए हैं।’‘
इस मामले का एक अच्छा उदाहरण सन 2011 के नवंबर में शुरू हुआ एक क्षेत्रीय चैनल ‘खबर भारती’ है जिसका प्रसारण क्षेत्र मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान है। इस तरह के कई चैनलों की शुरुआत 2011 में सिर्फ इसी तथ्य को ध्यान में रख कर हुई थी कि 2013 में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधनसभा चुनाव आसन्न हैं। चैनल की शुरुआत करने की मंशा ही जब चुनाव के दौरान मिलने वाली पेड न्यूज़ और विज्ञापन पर टिकी हो, तो इनका भविष्य समझना मुश्किल नहीं है। खबर भारती शुरू करने वाला साई प्रकाश समूह चिटफंड कंपनियां चलाता है। इसके समानांतर खुलने वाले कुछ चैनलों में राष्ट्रीय चैनल न्यूज़ एक्सप्रेस का नाम ले सकते हैं। इसे चलाने वाला समूह साई प्रसाद नाम का है। इसका काम भी चिटफंड कारोबार ही है और इसका मालिक हत्या के एक मामले में मकोका में फंसा है। जीएनएन, एचबीसी, बंसल आदि नाम से कुछ चैनल भी इसी साल खुले और सब के सब बंद होने के कगार पर हैं या भारी घाटे में चल रहे हैं। बहरहाल, ऐसा नहीं है कि सिर्फ सरकारी दबाव और कोऑप्ट करने की रणनीति से ही चैनल और पत्रकार बिकने को मजबूर होते हैं। खबर भारती में संवाददाताओं और ब्यूरो प्रमुखों की नियुक्ति ही इस मंशा से की गई थी कि वे मूल कंपनी के चिटफंड कारोबार को संरक्षण दे सकें। इसी का नतीजा था कि अधिकतर ब्यूरो प्रमुख कंपनी के चिटफंड कारोबार पर आने वाली दिक्कतों को दूर करने और लायज़निंग करने में अपना ज्यादा समय बिताते और खबरें देने का काम नहीं करते थे। इसके परिणामस्वरूप दस महीने भी नहीं बीते थे कि चैनल खबरों के अभाव में बंद होने के कगार पर आ गया। दिसंबर के आखिरी महीनों में इस चैनल को छत्तीसगढ़ सरकार की ओर से 25 लाख का एक विज्ञापन मिला जिसमें दिन में कई बार सरकारी योजनाओं के प्रचार वाली सीडी को चलाने का करार शामिल था। चैनल चलाने वाली मूल कंपनी ने अपनी आर्थिक हालत ठीक करने के लिए मध्यप्रदेश के एक मंत्री का सहारा लेकर ऊर्जा के क्षेत्र में सरकार के साथ कुछ करोड़ के एक एमओयू पर दस्तखत भी किए हैं। चैनलों की इस तरह की आर्थिकी का ही नतीजा है कि पिछले दो साल के दौरान कई न्सूज़रूम आंदोलन का भी गवाह बने हैं। छोटे और मध्यम दर्जे के पत्रकार कर्मचारियों ने वेतन और अधिकारों के मुद्दे पर न सिर्फ खबर भारती, बल्कि इंडिया न्यूज़ और महुआ चैनल में आंदोलन चलाया है। आइए देखते हैं कि चैनलों के मालिकाने का चरित्र भारत में कैसा है।
स्रोत: तहलका, 15 सितंबर, 2012
ऊपर दी गई सूची में चैनल शुरू करने वाली कोई भी मूल कंपनी मीडिया से संबद्ध नहीं रही है। यह एक बड़ी वजह है कि केंद्र और राज्य सरकारों के मीडिया को अपने पाले में करने के रुख और रणनीति के समानांतर मीडिया के खुद बिक जाने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। इंडियन एक्सप्रेस की 7 दिसंबर और तहलका की 15 सितंबर की रिपोर्ट इस लिहाज़ से आंख खोलने वाली है।
सत्ता, मीडिया और निजी पूंजी के इस घालमेल का सबसे बड़ा असर जनता के असल मुद्दों और अधिकारों पर पड़ा है। मुख्यधारा का मीडिया, जिसका काम जनता की समस्याओं और अधिकारों के दमन को सामने लाना था, वह पूरी तरह सत्ता और पूंजी के हितों के आगे बिक चुका है। अगर बीबीसी की एक हालिया रिपोर्ट पर इस संदर्भ में गौर करें, तो आने वाली भयावह स्थिति का अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं होगा। बीबीसी ने ‘राइट्स एंड रिसोर्सेज इनीशिएटिव‘ और ‘सोसाइटी फॉर प्रमोशन ऑफ वेस्टलैंड डेवलपमेंट‘ के हवाले से यह चेतावनी दी है कि आने वाले 15 सालों में बड़ी परियोजनाओं के चलते भारत में संघर्ष और अशांति की आशंका है। देश के कुल 130 जिलों में जल-जंगल-जमीन की रक्षा के लिए ऐसे ही आंदोलन चल रहे हैं, हमारा व्यापक समाज और राजनीतिक तंत्र जिनकी उपेक्षा कर रहा है। अगर आम लोगों की आकांक्षाओं और राष्ट्रीय नीतियों के बीच संवाद स्थापित न किया गया और इन मुद्दों का लोकतांत्रिक तरीके से हल न निकाला गया तो जल्दी ही विस्फोटक स्थिति सामने आ सकती है।
(साभार: समकालीन तीसरी दुनिया, जनवरी 2013)
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बहुत रिसर्च करके आपने लेख लिखा है. मीडिया में रूचि रखने वाले और मीडिया के छात्रों को इसे जरूर पढ़ना चाहिए. मीडिया के अंदरखाने कितनी सड़ांध है आपके लेख को पढकर उसका एक अंदाजा जरूर मिलेगा. कोयले की दलाली, विज्ञापन का खेल, पेड न्यूज़, मीडिया संस्थानों और सरकार के मकड़जाल ने एक नए किस्म की पत्रकारिता हो रही है जिसके लिए पीत पत्रकारिता जैसे शब्द भी शायद छोटे पड़ जायेंगे.