नारद के बारे में पिछले कुछ दिनों के भीतर हिंदी चिट्ठाकारों के बीच भड़का असंतोष दरअसल एक ऐसी स्थिति को बयान करता है जहां व्यावसायिक हित ओर लोकप्रियता का चरम आखिर में रीढ़ की बेशर्म मांग पर उतर आता है।साल भर पहले करीब जब मैंने जनपथ को शुरू किया तो पहला पोस्ट ही विवादित हो गया था। ‘का गुरु चकाचक’ नाम के इस पोस्ट की भाषा पर दुबई से लेकर रतलाम वाया बनारस कोहराम मचा और जितेंद्र चौधरी ने मुझे नारद पर से हटा दिया। उस पर से यह उलाहना भी दी गई कि ‘हम तो हिंदी चिट्ठाकारों को प्रोत्साहित करने के लिए खुद नारद से उनके ब्लॉग को जोड़ लेते हैं।’
फिर मैंने एक पोस्ट लिखा ‘जितेंद्र चौधरी की भाषाई किडिच़पों’ – और एक बार फिर नारद मुनि के चेले मेरे ऊपर मय हरवा हथियार लेकर सवार हो गए। शायद मेरी जानकारी में मेरा जनपथ सबसे पहला ब्लॉग था जिसे नारद पर से हटाया गया, लेकिन उस वक्त मेरी भाषा का इतना विरोध था कि किसी ने भी नारद के खिलाफ एक शब्द नहीं कहा। संभव है उस वक्त आज के नारद विरोधियों को लोकप्रियता का डेंगू लगा रहा हो, जो कि किन्हीं सज्जन ने सलाह दी थी ‘नारद जी के आशीर्वाद के बिना हिंदी ब्लॉगिंग की दुनिया में टिकना संभव नहीं।’
मैंने सबकी भावनाओं का ख्याल करते हुए वह पोस्ट हटा दी। उस घटना के महीने भर बाद भी मुझे धमकी भरे फोन आते रहे…मैं नहीं जानता किसने ये फोन करवाए…लेकिन आज जो नारद के खिलाफ खड़े हैं उनमें से कुछ लोग उस वक्त नारद का गुणगान कर रहे थे।
मैं किसी को दोष नहीं देता…लेकिन इतना जरूर पूछना चाहता हूं कि क्या लोकप्रिय होने के बाद ही विरोध करने का साहस आता है…।
उस घटना के बाद से मैंने नारद से कोई संबंध नहीं रखा…और धीरे-धीरे ब्लॉगिंग से दूर होता गया। कई वजहें थीं।
नारद का विरोध अपने आप में जायज भी है और वक्त की मांग भी…मैं इस प्रकरण में ही नहीं बल्कि ब्लॉगिंग की दुनिया में कदम रखने के वक्त से ही नारद के फासीवादी रवैये की मुखालफत करता रहा हूं। इसलिए यह बात मेरे लिए कोई नयी नहीं।
नयी बात यह है कि यदि भविष्य में हिंदी के चिट्ठाकार नारद का कोई विकल्प चुनते हैं तो क्या वहां वही खतरे पैदा होने की संभावनाएं नहीं होंगी जो नारद में रहीं…भले ही उनका चरित्र सांप्रदायिक और हिंदूवादी न हो। आखिर लोकतंत्र किसी भी माध्यम की सबसे बड़ी मांग है…क्या इस सवाल को संबोधित करने की जरूरत आज नहीं है।
जो सबसे ज्यादा लोकप्रिय हिंदी ब्लॉग आज चल रहे हैं, क्या वहां सच्चे मायनों में लोकतंत्र है…क्या ऐसा प्लेटफॉर्म बनाने का साहस कोई रखता है जहां आप अपनी सब्जेक्टिविटी से ऊपर उठ कर लेख पोस्ट कर सकें…। क्या वहां आपका अपना एजेंडा नहीं आड़े आएगा…।
ये कुछ सवाल हैं जिन पर सोचे जाने की जरूरत है।
अभी तक मैं नारद को वेबदुनिया साहित्य के लिंक से ही देखती थी । हर बार वही पुराना अंक देखकर निराशा होती । आज आपके लेख से नारद का ऑनलाईन नया अंक देखा । शुक्रिया !
क्या आप ए सब चाप ने के लिए quillpad.in/hindi उपयोग किय
वह सब तो ठीक है लेकिन सांड़ कहां भटक गया है. कुछ लिखता क्यों नहीं?