(यह लेख कुछ ही दिनों पहले दैनिक भास्कर में प्रकाशित हो चुका है। चूंकि इस पर काफी प्रतिक्रियाएं आईं और किसी रूद्र वर्मा नाम के सज्जन ने इसे ए से जेड तक शुरू होने वाले तमाम ऐसे ई-पतों पर स्कैन कर के फॉरवर्ड कर दिया जो लोग प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सामाजिक आंदोलनों से जुड़े हैं, तो मुझे लगा कि इसे ब्लॉग पर भी प्रकाशित कर देना चाहिए। पिछले काफी दिनों से ब्लॉग पर कुछ न लिखने की इकलौती वजह यह रही कि मैं अपना पासवर्ड भूल गया था। आज काफी मशक्कत के बाद मैंने उसे खोज निकाला है)
आजादी के 60 वर्ष बीत चुके हैं और इस वर्ष का साठ फीसदी वक्त भी निकल चुका है। साठ वर्षों के दौरान जो हो न सका, उसे हासिल करने की मांग को लेकर इस वर्ष देश की राजधानी में छिड़े एक संघर्ष ने पहला चरण पूरा कर लिया है। देश की तमाम ज्वलंत समस्याओं पर मेधा पाटकर के नेतृत्व में ‘संघर्ष 2007’ नाम की यह परिघटना जिस उद्देश्य को लेकर चली थी, उसकी परिणति पिछले 13 अगस्त को भले ही राष्ट्रीय पुनर्वास नीति का मसौदा जमा किए जाने में हो गई, लेकिन नागरिक समाज और दिल्ली में स्थित जनांदोलनों के बीच अचानक कुछ बहसों की शुरुआत और पिछले ही दिनों की एक दबी-छिपी घटना ने महत्वपूर्ण सवाल खड़े कर दिए हैं। यहां यह सोचा जाना लाजिमी हो चला है कि आखिर विस्थापन, दलित, स्त्री, आदिवासी, साम्प्रदायिकता, भूमंडलीकरण जैसे मुद्दों समेत विनायक सेन की गिरफ्तारी पर संघर्ष की डुगडुगी बजाने वाले दरअसल परदे के पीछे कर क्या रहे हैं? यह इसलिए और जरूरी हो जाता है क्योंकि आज जिस स्थिति में नागरिक समाज और जनसंगठनों का संघर्ष पहुंच चुका है, वहां काम के आधार पर विभाजक रेखा खींचना कठिन से कठिनतर होता जा रहा है। आश्चर्य है कि कभी जिन कामों की उम्मीद कम्युनिस्ट पार्टियों से की जाती थी, आज उनमें से कई तो एक्टिविस्ट एनजीओ किए दे रहे हैं। इसके बावजूद उनकी बुनियादी दिक्कतें क्या हैं जो उन्हें बार-बार अविश्वसनीय बना देती हैं?
यह बताने की जरूरत नहीं कि वास्तव में दिल्ली और इससे बाहर कुछ ऐसे जनसंगठन हैं जो विदेषी अनुदान मिले या न मिले, मोटे तौर पर अपने बनाए एजेंडे पर चलते हैं और कमोबेश कुछ ईमानदारी से काम कर रहे हैं। देश भर के ऐसे संगठनों के लिए दिल्ली में एक समर्थन समूह भी है। यह तय करना हमेशा से कठिन रहा है कि जो संगठन खुद को विदेशी अनुदानों से मुक्त बताते हैं वे वास्तव में कितना मुक्त हैं, क्योंकि परोक्ष रूप से विदेशी अनुदान का ही पैसा उनकी पदयात्राओं जैसी चीजों में मदद करता है। इसलिए बात यहां से नहीं शुरू की जानी चाहिए। असली मसला उनके काम का है जिसे परखा भी जा सकता है। यहां हम सिर्फ एक ही कसौटी को अगर लें तो बात समझ आएगी। जनस्वास्थ्यकर्मी और मानवाधिकार कार्यकर्ता बिनायक सेन को गिरफ्तार हुए दो महीने हो रहे हैं। दिल्ली से लेकर रायपुर तक कार्यक्रम किए गए और न सिर्फ पीयूसीएल बल्कि तमाम एनजीओ, जनसंगठनों और मोर्चों ने उनकी गिरफ्तारी के विरोध में आवाज़ भी उठाई। दिल्ली में ईमानदारी से एक कमेटी का भी गठन किया गया। अच्छे प्रयासों के बावजूद नतीजा ढाक के तीन पात। हद से हद हुआ यह कि जो बिनायक सेन को नहीं जानते थे, वे जान गए। दिल्ली से गए एक पत्रकार का पीयूसीएल के पदाधिकारियों के साथ रहते हुए विनायक सेन से जेल में न मिल पाना, अपने आप में एक अद्भुत कहानी है। दिल्ली के ही एक मानवाधिकार कार्यकर्ता का कहना है कि बिनायक सेन पर कानूनी मामला उतना मजबूत नहीं है, लेकिन उनके पक्ष में उठने वाली आवाज़ें बहुत लचर हैं। इसके लिए वे शब्द ‘कैजुअल अप्रोच’ का इस्तेमाल करते हैं।
यह ‘कैजुअल अप्रोच’ सिर्फ बिनायक सेन के मामले में ही नहीं,, जमीनी संघर्ष में भी दिखता है। मोटे तौर पर यदि हम यह सैध्दांतिक रूप से मान लें कि सभी एनजीओ या गैर सरकारी संस्थाएं साम्राज्यवादी पूंजी और हितों की पोषक हैं, तो हमारे लिए सोचने को कोई सवाल ही नहीं रह जाता। लेकिन यदि हम यह रणनीतिक रूप से स्वीकार करते हैं कि आज की दमनकारी और जनविरोधी स्थितियों में सभी प्रतिरोधी ताकतों को अपनी-अपनी सीमाओं के साथ एक न्यूनतम मंच पर आना चाहिए, तो जिस किस्म की दिक्कतें पैदा होती हैं वह आज दिल्ली के नागरिक समाज में स्पष्ट दिख रही हैं। पहली फांक तो वैचारिक ही है जो समाजवादी बनाम कम्युनिस्ट का रूप धारण कर लेती है। दिन के उजाले में यह फांक निजी और सामूहिक स्तर पर ढंकी रहती है लेकिन रात के धुंधलके सुरूर में कभी-कभी इसकी अभिव्यक्ति बहुत खतरनाक हो जाती है, जैसा कि पिछले दिनों हुआ।
दिल्ली के एक दलित संगठन के दलित कार्यकर्ता द्वारा एक समाजवादी नेता की दो दर्जन लोगों के सामने पिटाई इसलिए की गई क्योंकि उस नेता ने दलित कार्यकर्ता की पत्नी से छेड़छाड़ की थी। बाद में उक्त समाजवादी सज्जन द्वारा अकेले में माफी मांगे जाने ने न सिर्फ उनकी निजी छवि को नुकसान पहुंचाया, बल्कि दिल्ली में जनांदोलनों के प्रतिनिधियों के बीच और मतभेद पैदा कर दिए। यह सोचा जाना चाहिए कि आखिर क्यों आंदोलनों की सामूहिक ताकत एक निजी परिघटना से प्रभावित हो जाती है? मेधा पाटकर ने खुद कई बार इस तथ्य को स्वीकार किया है आज एनजीओ और राजनीतिक कार्य को अलग किए जाने की जरूरत है, ठीक उसी तरह जैसे अनुदानित और गैर-अनुदानित संस्थाओं को भी। इन दोनों का घालमेल ही सारी दिक्कतें पैदा कर रहा है। संभव है कि उक्त घटना की खबर मेधा पाटकर तक भी पहुंची हो, तो क्या हम उनसे एक ऐसी ईमानदार स्वीकारोक्ति की उम्मीद कर सकते हैं कि उनके इर्द-गिर्द के लोग ही व्यक्तिगत आचरण और हितों के चलते एक व्यापक आंदोलन को नुकसान पहुंचा रहे हैं?
सवाल सिर्फ किसी एक घटना तक सीमित नहीं है, यह बात सीधे-सीधे उस व्यापक देसी आबादी से जाकर जुड़ती है जिसका प्रतिनिधित्व दिल्ली में किया जाता है और कभी-कभार उसे रेलगाड़ियों में भर कर संसद मार्ग पर लाया जाता है। क्या इस तर्क को पुष्ट किया जा सकता है कि एक महाराष्ट्र आधारित हजारों की संख्या वाला आदिवासी जनसंगठन कॉमन स्कूल सिस्टम पर सेमिनार करे या उसके लिए दिन भर जंतर-मंतर पर जलता रहे? ऐसा नहीं है कि संस्थाओं और जनसंगठनों का नेतृत्व इस बात को समझता नहीं, लेकिन उसके लिए नागरिक स्वतंत्रता के संघर्ष से मिली कुर्सियां कभी-कभार ज्यादा महत्वपूर्ण हो उठती हैं और कुर्सियों की अदला-बदली में सारा संघर्ष पार्श्व में चला जाता है। निजी कारणों से आंदोलनों के घालमेल ने दरअसल जिस किस्म का नुकसान इस देश को पहुंचाया है, बिनायक सेन उसी की सजा विरासत में भुगतने को मजबूर हैं। यदि आज भी इस बात को तमाम प्रतिरोधी ताकतें स्वीकार नहीं करेंगी, तो आने वाले समय में जनता की राजनीति करने वाले सभी व्यक्तियों, समूहों और संगठनों पर बेवजह एक सवालिया निशान खड़ा हो जाएगा। इसके परिणामों की कल्पना करना ज्यादा कठिन नहीं है।
आप ने इस लेख को चिट्ठे पर प्रकाशित करके अच्छा किया.
"आज एनजीओ और राजनीतिक कार्य को अलग किए जाने की जरूरत है, ठीक उसी तरह जैसे अनुदानित और गैर-अनुदानित संस्थाओं को भी।"
यह एकदम सही बात है.
— शास्त्री जे सी फिलिप
आज का विचार: जिस देश में नायको के लिये उपयुक्त आदर खलनायकों को दिया जाता है,
अंत में उस देश का राज एवं नियंत्रण भी खलनायक ही करेंगे !!