अभिषेक श्रीवास्तव
उसका चेहरा मेरे ज़ेहन से नहीं जा रहा। बताना भी उतना आसान नहीं कि देखने में वो कैसा था। पहली नज़र में सांवला, गोल और विशाल थोबड़ा। आंखें बाहर की ओर निकली हुईं। सिर पर बंधी हुई एक सफेद ट्यूब जिसमें दवा डालने के लिए चार अलग-अलग सिरे बाहर लटके थे। शरीर पर अस्पताल का ढीला हरा कपड़ा, जो पीछे से खुला था। पाजामा लसराता हुआ। बेढब, अनगढ़ और कुछ-कुछ एलियन सा लंबा, चौड़ा, लेकिन कमज़ोर शरीर। उसे देखने वाला कोई नहीं था उस अस्पताल के वार्ड में। वह रात कुछ भयावह सी थी जब र्मैं उससे मिला। सावन के सूखे के बाद दिन भर हुई भादों की बारिश और अब रात का सन्नाटा। सामने फेसबुक खुला था, लेकिन घंटे भर पहले कही उसकी बात दिमाग में कौंधे जा रही थी- ‘सुबह जो ट्रेन एक्सीडेंट हुआ था उसमें तुम्हें चोट लगी थी न? अब कैसे हो?‘ एक नहीं, तीन बार उसने यह सवाल पूछा था। बिल्कुल वार्ड में घुसते ही उसने पूछा था। मुझे बगल में बैठने को भी कहा। मैं दूर बैठ गया। ‘समय किसी को नहीं छोड़ता है’, कह कर वह दूर से मुस्कराया था।
मरीज़ के अटेंडेंट के लिए रखी कुर्सी पर मुझे रात बितानी थी। वह मुझे एकटक देखे जा रहा था। मैं नज़रें बचा कर उस पर नज़र रखे हुए था। कुछ देर बाद वह दीवार की ओर पलट गया। बिल्कुल चिपक कर दीवार से लेट गया और धीरे-धीरे ऊपर रेंगने की कोशिश करने लगा। अचानक कुछ दरकने की आवाज़ हुई। वह ऑक्सीजन वाली पाइप को खींच रहा था। किसी अनिष्ट की आशंका में मैं नर्स को बुलाने बाहर खिसक लिया। नर्स ने आकर उसे प्यार से शांत कराया। मैंने अकेले में नर्स से पूछा- ‘क्या मानसिक रोगी हैं?‘ उसने कहा- ‘नहीं, पेट के रोगी हैं।’ ‘तो ये हरकतें?‘- मैंने पूछा। ‘होता है, ऐसा होता है’, नर्स मुस्करा दी।
मेरे और उसके सोने के लिए अब रात बहुत बची नहीं थी। मैं तड़के चाय पीने निकल गया। लौटा तो सारे मरीज़ जग चुके थे। मैं अपने मरीज़ के पास जाकर हालचाल लेने लगा। अचानक कंधे पर पीछे से एक हाथ महसूस हुआ, ‘नहा लो’। वह अपलक मुझे देख रहा था। उसी की भाषा में मैंने जवाब दिया, ‘नहा लिए पांच बजे ही, घाट से आ रहे हैं।’ पहली बार वह हंसा। काफी संतोष था उसके चेहरे पर। मैं अपनी कुर्सी पर जाकर बैठ गया। कुछ देर के बाद अबकी वो टहलता हुआ मेरे पास आया। एक हाथ टेबल पर टिका कर और दूसरा हाथ सामने हवा में लहरा कर बोला- ‘पहलवानजी, ये सब अपने ही खेत हैं। आगे डेढ़ सौ बीघा। उधर दो सौ बीघा। मथुरा में भी ज़मीन है। सब अपना है। लेकिन सब बेकार।’ मैंने गोता मारा, ‘क्यों, क्या हुआ?‘ वो बोला- ‘सब चला गया। समय किसी को नहीं छोड़ता।’ कह कर वो मुस्कराया और बाथरूम चला गया।
कुछ देर बाद वार्ड में अचानक हुए शोरगुल से अहसास हुआ कि बैठे-बैठे मैं तो सो गया था। पता चला वो गायब है। बाथरूम में भी नहीं था। सुबह के आठ बजे अस्पताल के चौथे माले पर हड़कंप मच गया। कुछ देर की मशक्कत के बाद सिक्योरिटी वाला उसे लेकर आया। उसका चेहरा बेशिकन था। आते ही उसने पूछा, ‘खाना खा लिया?‘ ‘हां’, मैंने जवाब दिया। ‘खेत देखने गया था’, कहते हुए वह बिस्तर पर जाकर लेट गया।
कुछ देर बाद आए उसके बेटे ने बताया, ‘दिक्कत पेट की है, हरकतें पागलों की सी करते हैं। पूरे परिवार को परेशान कर के छोड़ा है।’ याद आया कि विदर्भ में किसानों की खुदकुशी का कारण पता लगाने के लिए महाराष्ट्र सरकार ने एक बार मनोचिकित्सकों की टीम भेजी थी। टीम ने रिपोर्ट दी थी कि किसानों की असली समस्या भूख और कर्ज़ की नहीं, दिमागी है। लड़का बोलता रहा, ‘इस बार पानी देर से बरसा है न, इसलिए ज्यादा पगलाए हैं। बार-बार खेत देखने भाग जाते हैं। वो देखिए…।’ देखा कि दूसरे मरीज़ों से नज़र बचाकर उनके फ्लास्क का दूध वह पी रहा था। लड़का अब शर्मिंदा था। खीझ कर बोला, ‘सब चला गया। मेरी पढ़ाई बीच में अटक गई। भाई ट्रेन एक्सीडेंट में मारे गए। मां को लकवा मार गया। ज़मीनें छिन गईं। और ये हैं कि इन्हें खाने-पीने से ही फुरसत नहीं।’
कहानी के टूटे सिरे जुड़ गए थे, लेकिन हाथ से लगातार कुछ फिसलता जा रहा था। भूख बेकाबू होती जा रही थी। ऑक्सीजन की पाइपें कहीं फटने को थीं, तो कहीं रेलगाडि़यां पटरी से उतर रही थीं। बची-खुची ज़मीन छीनी जा रही थी। औरतों को लकवा मार चुका था और लड़के, बाप को गाली दे रहे थे। मेरा ब्लड प्रेशर बढ़ रहा था और आंखों के आगे जाले से बनने लगे। तभी राउंड पर आए डॉक्टर की आवाज अचानक कानों में पड़ी- ‘आज खून की उल्टी हुई क्या?‘ वो चुप रहा। लेकिन रात वाली मलयाली नर्स ने मज़ाक किया- ‘डॉक्टर क्या जानता है। इसके पेट में तो हवा भरा है, खून अब सिर पर आ गया है।’
नोएडा के उस अस्पताल में पता नहीं क्या हुआ था उस दिन, लेकिन कहानी अभी बाकी है। मैं जब निकलने को हुआ, तो उसने इशारे से अपने पास बुलाया। धीरे से बोला- ”मुखियाजी से बोलना, बस पेट की थोड़ी दिक्कत है। ज़मीनें संभालकर रखें। बाकी, मैं जल्दी दिल्ली आ रहा हूं।”
नोएडा से दिल्ली दूर नहीं है। मथुरा से भी नहीं। और अब तो कहीं से भी नहीं। सोचता हूं कि उसके सिर पर खून सवार है, वो कहीं दिल्ली न आ जाए। डर इस बात का है कि अबकी दो भादों पड़ रहे हैं। बारिश लंबी खिंचेगी। पेट के रोगी भी बढ़ेंगे। और पेट के रोगों से दिमाग खराब हो जाता है, इतना तो अब जान ही गया हूं।
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A lovely post. As much Orwellian as Kafkaesque. Well done, biradar.