(हिंदी के लेखक उदय प्रकाश के साहित्य अकादेमी पुरस्कार लौटाने पर थोड़ी ही देर पहले हिंदी के कवि विष्णु खरे का यह पत्र ई-मेल से प्राप्त हुआ है और इसे छापने का आग्रह किया गया है। नीचें पढ़ें विष्णु खरे जी की पूरी पाती – मॉडरेटर)
विष्णु खरे |
मैं श्री उदय प्रकाश के साहित्य, विचारों, वक्तव्यों, कार्यों, मनःस्थितियों और कार्रवाइयों पर कुछ भी नहीं कहता हूँ क्योंकि उसे भी वह उसी वैश्विक षड्यंत्र का हिस्सा मान लेंगे जो अकेले उनके खिलाफ मुसल्सल चल रहा है, किन्तु मुझे उनका यह साहित्य अकादेमी पुरस्कार लौटाना बिलकुल समझ में नहीं आया।
अकादेमी और अन्य संदिग्ध पुरस्कारों पर मैं वर्षों से लिखता रहा हूँ। कुछ पुरस्कारों को लेकर मेरी भी भर्त्सना हुई है। प्रस्तावित होने पर कुछ पुरस्कार मैंने लेने से इन्कार भी किया है।
मैं अकादेमी पुरस्कारों और प्रो. मल्लेशप्पा मदिवलप्पा कलबुर्गी की नृशंस हत्या के बीच कोई करण-कारण सम्बन्ध नहीं देख पा रहा हूँ। यदि उदय प्रकाश साहित्य अकादेमी को केन्द्रीय सरकार का एक उपक्रम मान रहे हैं और इस तरह मोदी शासन, भाजपा, आर.एस.एस., विहिप, बजरंग दल आदि को किसी तरह प्रो. कलबुर्गी की हत्या के लिए ज़िम्मेदार मानकर उसका विरोध कर रहे हैं तो 2011 के उनके पुरस्कार के पहले और बाद में भी सभी केन्द्रीय सरकारें और उनके समर्थक कई हत्याओं और अन्य अपराधों के लिए नैतिक रूप से ज़िम्मेदार रहे हैं और होंगे। सच तो यह है कि केन्द्रीय साहित्य अकादेमी पुरस्कार अपने आप में वर्षों से इतना कुख्यात हो चुका है कि उसे स्वीकार ही नहीं किया जाना चाहिए – न कांग्रेस के शासन में, न भाजपा के शासन में।
और भी विचित्र यह है कि डॉ. दाभोलकर की हत्या 20 अगस्त 2013 को की गई थी और कॉमरेड गोविन्द पानसरे को 20फ़रवरी 2015 को मारा गया लेकिन यह दोनों क़त्ल श्री उदय प्रकाश को इस योग्य नहीं लगे कि उनके प्रतिवाद में वह अकादेमी पुरस्कार लौटा दें। शायद उन्हें रघुवीर सहाय की तर्ज़ पर बता यह दिया गया था फिर एक हत्या होगी। लेकिन हत्याएँ तो अनिवार्यतः और होंगी ही। सब हो लेने देते।
मुझे अफ़सोस के साथ कहना पड़ रहा है कि मैं उदय प्रकाशजी की इस कार्रवाई को an insult to intelligence समझने और प्रो. कलबुर्गी की हत्या को exploit करने जैसा मानने के लिए विवश हूँ। यह एक तरह से उनका दूसरा क़त्ल है। लेकिन कल 5 सितम्बर को प्रगतिकामी-वामपंथियों की एक सार्वजनिक प्रतिवाद-सभा दिल्ली में है और संभव है उदय प्रकाशजी ने यह कार्रवाई एक उम्दा sense of timing के तहत आयोजकों का मनोबल बढाने के लिए की हो। तब यदि वह राजधानी में हों तो उन्हें बोलने के लिए बुलाया जाना चाहिए। बहुत असर पड़ेगा।
विष्णु खरे
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जाहिर है , भेजा है तो छापने के लिए भेजा होगा।लेकिन छापने न छापने का अंतिम निर्णय सम्पादक को करना होता है।
हैरत है कि हम अब भी आपसी रंजिशों में बेसुध हैं । क्या हर आदमी गोली खाने के बाद ही समझेगा कि फासीवाद आ चुका है।
सिचुएशन को एक्सप्लॉयट करने का काम खरे जी भी कर सकते हैं। उन्हें भी कुछ पुरस्कार मिले होंगे। लौटा दें।
कब तक यह तर्क दिया जाता रहेगा कि साहित्य अकादमी सरकार की नहीं है , कि सरकार भी सरकार की नहीं है जनता की है , कि पुरस्कार जनता देती है – सरकार या उसका कोई नुमाइंदा नहीं।हद है। यानी कि लेने की छोड़िए , किसी को पुरस्कार लौटाने तक का हक़ नहीं है? अगर वह किसी भी स्थिति का विरोध करना चाहे।
अगर अकादमी इतनी ही आज़ाद है तो वह क्लबर्गी पर एक शोकप्रस्ताव तक पास करने से क्यों मना कर रही है , जो खुद अभिषेक जी ने हमें बताया है।
मैं उदय प्रकाश के फैसले का स्वागत करता हूँ।
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Khare ji ki khari baat pachegi nahi. Bhai Jo puraskar 2011 me mila usko lautane ke aise kai mauke aaye , ab tak kahan chupe the bhai? Wayse puraskar ka koi khas Matlab nahi hota. Andhon ki revdi baanten jaise baat hai. Liya to liya. Wapas kiya to kiya. Lene mai bhi khoob gutbaazi aur rajniti chalti hai ;wapas karne me to hai he. Uday ji nakhoon kata ke shaheed kahlana chahte hain. Kalburgi ji ki hatya ghor nindniya hai. Apradhiyon ko sazaa milni Hi chahiye per bhai apni kamraidey rotiyan na seken.
थोड़ा गैम्बल तो करना ही पड़ता है । खासकर रोजी रोटी ,लाईफस्टाईल को सुरक्षित करने के बाद एक्सट्रा पूंजी से शेयर मार्केट में लक ट्राई करने में कोई बुराई नहीं ,ये कैलकुलेटेड रिस्क है -as per chankya neeti, the share broker.
विजय माल्या के पिता विट्ठल माल्या ने जनता सरकार के समय शराबबंदी (प्रोहिबीशन ) काल में शराब कम्पनियों में पैसा लगाया । तब ये घनघोर घाटे में थी ,लेकिन माल्या की गट फीलींग थी कि यह बौड़म सरकार और शराबबंदी चलेगी ही नहीं । ऐसा ही हुआ और पौबारा पच्चीस । वैसे भी वामी कोड है -वन स्टेप बैक, टू स्टेप फारवर्ड. ..
हाँलाकि मैं उदयजी को सोफोमोर किस्म का वामी नहीं मानता ,लेकिन रूटेडनेश से आऊटग्रो करना भी मुश्किल है ।
धरवाड़ में कुलबर्गी मार दिए गए ये कुछ ऐसा है जब आप बात को न मार सकते हों तो बात करने वाले को मार दे। सन्देश को न पचा सकते हों तो उस दूत को मार दें जो आपके पास सन्देश ले कर आया है। लेखक भाषा और विचारों का ऐसा ही दूत होता है। चाहें वो सैटेनिक वर्सेज का रश्दी हो या लज़्ज़ा वाली तस्लीमा नसरीन या शर्ली अब्दो के कार्टूनिस्ट या बंगलादेशी ब्लॉगर या मकबूल फ़िदा हुसैन। उदय प्रकाश ने तथाकथित रूप से इससे क्षुब्ध हो कर अपना पुरस्कार वापस कर दिया। एक दो दिन में रविश कुमार इस प्राइम टाइम पर शो कर देंगे। कालबर्गी तो चले गए और पीछे छोड़ कर मुद्दे की लाश। मुद्दे की लाश पर कुछ गिद्ध बैठेंगे थोड़ा नोचेंगे थोड़ा फेकेंगे और जब मन भर जायेगा तब किसी दूसरी ओर बढ़ चलेंगे। कुछ मीडिया संस्थानों ने इसे अतिवादी हिन्दू समूह की हरकत बताना शुरू कर दिया है ये कुछ वैसा ही है जैसे पटेल आरक्षण आंदोलन को हिन्दुओं का आंदोलन बताना। कुलबर्गी लिंगायत थे उन्होंने ऐसा बहुत कुछ लिखा है जिसने लिंगायत रूढ़वादियों को चोट पहुँची। चोट पहुची और उसकी प्रतिक्रिया हिंसा हो सकती है । परंतु उदय प्रकाश जी जैसे साहित्यकार ने अच्छी टाइमिंग का परिचय देते हुये पुस्कार वापस कर दिया । काफी पुरस्कार लिये ही इस लिये जाते हैं ताकि सही समय पर वापस किये जा सके । साहित्य अकादमी को पुरस्कार वापस कर शहीद का दर्जा प्राप्त करने की काबिले तारीफ रणनीति है। पुरस्कार वापस करने से दो फायदे बडे साफ हैं पहला मीडिया कवरेज और मुद्दे को बडी सफाई से केद्र सरकार की असफलता से जोड़ हिंदू अतिवाद से टैग कर देना है। मुद्दे की लाश पडीं है कुछ गिद्ध आ चुके हैं कुछ तैयारी में है। कुलबर्गी जिंदा होते तो गिद्धों को डपट कर भगाते ।