कांग्रेस पार्टी अपने 135 वर्षों के इतिहास में शायद सबसे कठिन और संकटपूर्ण दौर से गुजर रही है। पार्टी में आपसी खींचतान और कलह अपने चरम पर है। पार्टी तमाम प्रकार के वैचारिक तथा सांगठनिक अंतर्विरोधों से जूझ रही है। इन सबके बीच आम कार्यकर्ता कहीं दिग्भ्रमित और निराशा की स्थिति में है। इस संकट का कारण मात्र चुनावी पराजय या नेताओं का पार्टी छोड़कर जाना नहीं है बल्कि शीर्ष नेतृत्व के स्तर पर त्वरित और कठोर निर्णय लेने के साहस का अभाव, लीक से हटकर कुछ नया करने के लिए मौलिक सोच की कमी, असमंजसपूर्ण स्थिति तथा आत्मविश्वास की कमी है। इसका खामियाजा कांग्रेस को कई राज्यों में विधायकों द्वारा पार्टी छोड़ने और सत्ता के करीब आकर भी उससे चूक जाने के रूप में चुकाना पड़ा है, जबकि दो राज्यों में सत्ता से बेदखल होना पड़ा है।
ऐसा नहीं है कि कांग्रेस पार्टी में इस तरह की संकटपूर्ण स्थिति पहली बार उत्पन्न हुई हो। इससे पहले भी संकट की स्थितियाँ पैदा हुई हैं। स्वतंत्रतापूर्व कई बार ऐसी स्थितियाँ पैदा हुईं और पार्टी विभाजित हुई, लेकिन तब इसका आधार वैचारिक था। स्वतंत्रता के बाद पार्टी पर वर्चस्व को लेकर इंदिरा गांधी को वरिष्ठ नेताओं की चुनौतियों का सामना करना पड़ा और पार्टी विभाजित हुई। राजीव गांधी को वी. पी. सिंह के विरोध का सामना करना पड़ा तथा सत्ता गंवानी पड़ी, तो सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे को लेकर शरद पवार, पी. ए. संगमा, तारिक अनवर आदि ने एक नई पार्टी बनाई। फिर भी कांग्रेस पार्टी समय के साथ नए रूप और आकार ग्रहण करती हुई निरंतर आगे बढ़ती रही।
लोकतांत्रिक प्रक्रिया में किसी पार्टी में वैचारिक संघर्ष या अंतर्विरोध अथवा नेताओं के बीच टकराव कोई नई या अनोखी बात नहीं है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी रही हो या भारतीय जनसंघ, उनमें भी बिखराव और टकराव होते रहे हैं। समाजवादी विचारधारा पर आधारित पार्टियाँ तो पता नहीं कितनी बार एकजुट हुए और बिखरे हैं। इसलिए सिंधिया का कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल होना अथवा पायलट का बगावत करना कोई बड़ी बात नहीं है और न ही इसे मैं कांग्रेस के लिए बहुत बड़ा नुकसान मानता हूँ।
कांग्रेस की समस्या
कांग्रेस की समस्या यह है कि विगत दो दशकों में आलाकमान ने पैराशूट से लैंड करने वालों को सीधा सांसद बना दिया और मंत्री पद दे दिया। सिंधिया, पायलट जैसे लोगों को मैं धरातल से जुड़ा नहीं मानता। पायलट ने जरूर राजस्थान में मेहनत की, लेकिन उन्हें भी सब कुछ बिना किसी संघर्ष के ही विरासत में मिला। ये दोनों ही नहीं, मिलिंद देवड़ा, जितिन प्रसाद आदि कुछ और नाम इसमें शामिल कर लीजिए। ये लोग आने वाले दिनों में पार्टी छोड़ दें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। सिंधिया और पायलट से पहले विजय बहुगुणा और रीता बहुगुणा जोशी का उदाहरण सामने है, जिन्हें क्रमशः उत्तराखंड का मुख्यमंत्री तथा उत्तर प्रदेश का अध्यक्ष पद सौंप दिया गया था। आज दोनों कहाँ हैं, देख सकते हैं। इन लोगों ने जमकर सत्ता सुख भोगा है। आज जब इन्हें पता है कि अगले चार साल तक कांग्रेस के पास देने लायक कुछ नहीं है, तो अन्य नेता इस डांवाडोल स्थिति का भरपूर फायदा उठाने की ताक में लगे हैं। अगर आज कांग्रेस केंद्र में सत्ता में होती तो क्या ये लोग यही कदम उठाते? शायद नहीं!
बहुगुणा, सिंधिया जैसों की तुलना में कुछ समय पहले गुजरात में अल्पेश ठाकोर का पार्टी छोड़कर जाना ज्यादा बड़ा नुकसान था। वह युवा थे, जमीनी संघर्ष से आगे बढ़े थे। उन्हें टिकट भी दिया गया था, वह विधायक भी बन गए थे तथा जहाँ तक मुझे ध्यान आता है कि अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी में सचिव भी बना दिया गया था। शायद सत्ता की कुर्सी का माया-जाल ज्यादा आकर्षक निकला।
अगर थोड़ा पीछे जाएँ तो इससे बड़ा नुकसान कांग्रेस के लिए शरद पवार, पी. ए. संगमा और तारिक अनवर का पार्टी छोड़ना था या फिर ममता बनर्जी का पार्टी से अलग होना था क्योंकि इनकी राजनीतिक यात्रा जमीनी संघर्ष से शुरू हुई थी और ये आम जनता से जुड़े हुए थे। इस रूप में सिंधिया, पायलट जैसे नेता जमीनी संघर्ष की उपज नहीं हैं। अपने सक्रिय राजनीतिक जीवन के आरंभ से ही ये लगातार संसद के सदस्य रहे, यूपीए शासनकाल में 10 वर्षों तक केन्द्रीय मंत्री भी रहे यानि सत्ता से लगातार जुड़े रहे। सिंधिया के व्यवहार में तो आभिजात्यता प्रदर्शित होती है। क्या वे कभी महंगाई, बिजली-पानी की समस्या, बेरोजगारी के मुद्दे पर सड़क की लड़ाई करते बैरिकेड पर चढ़ सकते हैं, पानी के बौछारों का सामना कर सकते हैं और नारे लगा सकते हैं?
राहुल गांधी के लिए चुनौतियाँ
2019 के लोकसभा चुनाव में करारी हार और उसके बाद अध्यक्ष पद से राहुल गांधी के इस्तीफे ने कांग्रेस के संकट को सतह पर लाने का काम किया। कांग्रेस के सियासी वजूद पर खतरे की एक वजह तथाकथित बड़े नेता भी हैं। इन तथाकथित बड़े नेताओं के अहं और आपसी खींचतान ने कांग्रेस के संकट को बढ़ाया है। पुरानी पीढ़ी के नेताओं द्वारा युवाओं को आगे नहीं बढ़ने देने ने इस संकट को जटिल बनाया है। युवा नेताओं के मन में अपने भविष्य को लेकर संशय है तथा उनकी महत्वाकांक्षा के रास्ते में सत्तर पार कर चुके वरिष्ठ नेता बाधा बनकर खड़े हैं। यहाँ विशेष रूप से राहुल गांधी अपने पिता वाली गलतियों को दोहरा रहे हैं। उनके पिता ने अपने करीबी मित्रों पर भरोसा किया, जो उनके लिए राजनीतिक रूप से गलत साबित हुआ। चूंकि उस समय उनके पास सत्ता थी, इसलिए बहुत सारे लोग उनके साथ जुड़े रह गए। दुर्भाग्यवश दूसरा मौका मिलने से पहले ही उनका निधन हो गया। आज स्थिति इतनी संकटपूर्ण इसलिए भी है कि लगातार दूसरे टर्म के लिए पार्टी सत्ता से दूर है और केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी अत्यंत निर्ममता के साथ विभिन्न राज्यों में साम, दाम, दंड और भेद दिखाकर एक के बाद दूसरे राज्य में सरकारों को गिरा रही है। इतना ही नहीं, सरकार गिरने की जिम्मेदारी भी उसी पर डाल रही है।
राहुल गांधी के सामने आज पार्टी को संगठित करने और छवि सुधारने की दोहरी चुनौती है। जहाँ तक अपनी छवि को सुधारने का सवाल है, तो वह निश्चित रुप से बदली है। जनता के बीच उनकी पैठ बढ़ी है, आम जनता उनकी बातें सुन रही है, यही कारण है कि उनके बयान आते ही भाजपा के बड़े-बड़े नेता उन पर हमला शुरू कर देते हैं। यद्यपि अब भी भाजपा का आईटी सेल और ट्रौलर्स गैंग उन्हें ‘पप्पू’ सिद्ध करने में लगा हुआ है, लेकिन उस हमले में अब धार नहीं रही और जनता भी इस खेल को समझने लगी है। अपनी स्वीकार्यता को और अधिक बढ़ाने के लिए उन्हें आम जनता और कांग्रेस के जमीनी कार्यकर्ताओं के बीच पहुँचना होगा, अपने इर्द-गिर्द मौजूद सलाहकारों के सुझावों और घेरे से बाहर निकलकर सीधा संवाद करना पड़ेगा।
कांग्रेस नेतृत्व की दुविधा
लोकसभा चुनाव में करारी हार को छोड़ दें तो पिछले तीन-चार वर्षों के दौरान विभिन्न विधानसभाओं के चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन बहुत खराब नहीं रहा है, वह भी उस स्थिति में जबकि कई राज्यों में उसने काफी अनमने ढंग से चुनाव लड़ा। कांग्रेस अभी पंजाब, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर सत्ता में है जबकि महाराष्ट्र और झारखंड में गठबंधन का हिस्सा होते हुए सत्ता में भागीदार है। मध्य प्रदेश और कर्नाटक में विधायकों के पार्टी छोड़ने के कारण सत्ता से बेदखल होना पड़ा है। हरियाणा, गोवा और मेघालय में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी थी। गुजरात और कर्नाटक में कई विधायकों के पार्टी छोड़ने के बाद भी कांग्रेस ने उनमें से कई सीटों को उपचुनावों में पुनः जीता है। मतलब साफ है कि आम जनता का एक बड़ा हिस्सा कांग्रेस पार्टी को विकल्प के रूप में देखता है। फिर इस तरह से विधायकों के पार्टी छोड़ने का कारण क्या है?
कुर्सी और सत्ता का आकर्षण एक कारण है, तो शायद आर्थिक लाभ का प्रलोभन एक अन्य कारण। एक ऐसे समय में जब राजनीतिक परिदृश्य में विचारधारा, आदर्श और नैतिकता अपना वजूद खो चुके हैं, तब व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा, मौकापरस्ती और निजी स्वार्थ-पूर्ति ने उन्हें भारतीय जनता पार्टी की ओर जाने के लिए प्रेरित किया। विभिन्न राज्यों में आपसी प्रतिद्वंदिता और खींचतान को सुलझाना, उनके बीच समन्वय स्थापित करना तथा असंतुष्टों से निबटना कांग्रेस की प्राथमिकता होनी चाहिए।
कांग्रेस के लिए एक बड़ी दुविधा वंशवाद और परिवार को लेकर होने वाले हमलों का जबाव देना है। राहुल या प्रियंका की बात आते ही बीजेपी वंशवाद और परिवारवाद की चर्चा छेड़ देती है। यह कांग्रेस की एक कमजोर नब्ज है, जिसकी चर्चा होते ही पार्टी रक्षात्मक हो जाती है। गोया ये इकलौता परिवार है, जो राजनीति में सक्रिय हो जबकि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में यह मुद्दा बेमानी हो चुका है क्योंकि इस प्रश्न पर अपने आप को अलग बताने वाली भारतीय जनता पार्टी खुद इस रोग से मुक्त नहीं है। राष्ट्रीय से लेकर क्षेत्रीय पार्टियाँ तक इस व्याधि से ग्रसित हैं। वंशवाद के मुद्दे पर कांग्रेस को हमेशा कोसने वाली भाजपा अपनी पार्टी में मुंडे, महाजन, ठाकुर, विजयवर्गीय, सिंधिया आदि सैकड़ों वंशवादियों के होते हुए भी वंशवाद के सिंधिया, बहुगुणा जैसे प्रतीकों को न सिर्फ बेझिझक शामिल करती है, बल्कि उन्हें पद भी देती है। उस समय इनका सारा सिद्धांत कहाँ चला जाता है? इसलिए जो केवल कांग्रेस में ही वंशवाद की बात करते हैं, वे एक खास उद्देश्य से ऐसा करते हैं। दरअसल वे जानते हैं कि कांग्रेस पार्टी अगर किसी भी रूप में एकजुट है, तो इसके केंद्र में कहीं न कहीं गांधी परिवार है जो तमाम कमजोरियों, विपरीत परिस्थितियों और विरोधाभास के बीच भी पार्टी को आपस में जोड़े हुए है। इस मुद्दे पर कांग्रेस को अपनी झिझक छोड़कर मजबूती के साथ अपनी बात रखनी चाहिए।
विभिन्न राज्यों में जिस तरह से कांग्रेसी विधायकों को तोड़ा गया, सरकारों को गिराया गया और अन्य विपक्षी पार्टियाँ मौन रहीं, यह कांग्रेस के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। भारतीय लोकतांत्रिक प्रक्रिया में इस तरह की घटनाएँ नई तो नहीं हैं, लेकिन विपक्षी पार्टियों का मौन रह जाना जरूर चिंता की बात है। अन्य विपक्षी पार्टियों का समर्थन केंद्र सरकार और बीजेपी को दबाव में डाल सकता था और आम जनता तक एक संदेश भी जाता। यह कांग्रेस के लिए नैतिक जीत और मनोबल बढ़ाने वाला साबित हो सकता था, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। आखिर इस तरह की घटनाओं पर भी अन्य पार्टियाँ क्यों समर्थन में नहीं आईं? कांग्रेस पार्टी अन्य विपक्षी पार्टियों के साथ समन्वय बनाने और संवाद कायम करने में क्यों सफल नहीं हो पा रही है? इस पर कांग्रेस नेतृत्व को विचार करने और इस दिशा में कदम उठाने की की जरूरत है।
कांग्रेस : भविष्य का रोडमैप
एक के बाद दूसरा संकट उत्पन्न होने देने के लिए जिम्मेदारी कांग्रेस नेतृत्व की ही बनती है, तो इससे बाहर निकलने का रास्ता भी उन्हें ही निकालना पड़ेगा। उन्होंने जमीन पर मेहनत करने वाले तथा सत्ता से बेदखल होने के बाद भी सीधे तौर पर जुड़े कार्यकर्ताओं को न तो प्रोत्साहित किया और न ही उनसे सीधा संवाद स्थापित किया। क्या राहुल गांधी या सोनिया गांधी से कोई आम कार्यकर्ता बेझिझक मिल सकता है और क्या उनसे मिलने के लिए किसी कार्यकर्ता को तुरंत समय मिल सकता है? कांग्रेस की आलोचना जमीनी संघर्ष करने वाले और वर्तमान दौर में भी पार्टी से जुड़े रहने वाले वास्तविक निष्ठावान कार्यकर्ताओं को अवसर नहीं देने के लिए होनी चाहिए।
कांग्रेस को कुछ बुनियादी सिद्धांतों पर स्पष्ट सोच जनता के सामने रखनी चाहिए। अर्थव्यवस्था, किसान और कृषि से जुड़े मुद्दे, रोजगार, निजीकरण, सामाजिक समरसता, राष्ट्रीय सुरक्षा आदि का खाका जनता के सामने प्रस्तुत करना चाहिए। जिन राज्यों में सरकार है, वहाँ उसे लागू करने का प्रयास भी करना चाहिए। पिछले लोकसभा चुनाव के बाद से हाल-फिलहाल तक राहुल गांधी को छोड़कर कोई दूसरा विपक्षी नेता नहीं है, जिसने केंद्र सरकार के कामकाज, कार्यशैली या निर्णयों पर लगातार सवाल उठाए हों। उन्होंने अर्थव्यवस्था, रोजगार, देश की सुरक्षा आदि से जुड़े कई गंभीर और ज्वलंत मुद्दों पर बेबाक तरीके से अपनी बात रखी है। ‘कोविड काल’ में भी वे लगातार अपनी राय व्यक्त करते रहे हैं। कांग्रेस के बाकी वरिष्ठ नेताओं को भी ग़ैर-जरुरी विवादास्पद बयानों से बचते हुए जनता से जुड़े बुनियादी सवालों पर बात रखनी चाहिए।
कांग्रेस में भविष्य का नेता बनने की क्षमता रखने वाले कार्यकर्ताओं की कमी नहीं है, जरूरत उन्हें मौका देने का है। उनका रास्ता ‘तथाकथित’ जनाधार वाले इन बड़े नेताओं ने रोक रखा है। एक आम कार्यकर्ता सालों मेहनत करने के बाद और किसी बड़े नेता का वरदहस्त प्राप्त होने पर किसी तरह जिला अध्यक्ष या राज्य स्तर पर किसी मोर्चे का पद पा लेता है तो उसके लिए बड़ी बात हो जाती है जबकि 42 की उम्र का कोई व्यक्ति केंद्र में जब तक सत्ता रही तब तक लगातार मंत्रीपद पर बना रहा हो, फिर प्रदेश अध्यक्ष और उपमुख्यमंत्री बन गया हो, फिर भी यह कहे कि उपेक्षित महसूस कर रहा था, तो बात हास्यास्पद हो जाती है। सब सत्ता का खेल है! कांग्रेस ऐसे नेताओं के कारण ही आज इस दशा में पहुँची है। बड़े-बड़े नामों को छोड़कर सामान्य नए ऊर्जावान आस्थावान कार्यकर्ताओं को आगे बढ़ाकर तो कांग्रेस देखे, संगठन भी मजबूत होगा और यह स्थिति भी उत्पन्न नहीं होगी।
अंत में, कांग्रेस नेतृत्व को यह समझना पड़ेगा कि कार्यकर्ता और जनता उनके पास नहीं आयेगी, बल्कि अब उन्हें कार्यकर्ताओं और आम जनता तक पहुँचना पड़ेगा क्योंकि लोकतंत्र में अंतिम शक्ति आम जनता के पास ही है। मुक्तिबोध के शब्दों में कहा जा सकता है-
वह चला गया है,
वह नहीं आएगा, आएगा ही नहीं
अब तेरे द्वार पर।
वह निकल गया है गाँव में शहर में।
उसको तू खोज अब
उसका तू शोध कर!
वह तेरी पूर्णतम परम अभिव्यक्ति,
उसका तू शिष्य है (यद्यपि पलातक….)
वह तेरी गुरू है,
गुरू है….”
समरेंद्र कुमार दिल्ली विश्वविद्यालय के श्यामलाल कॉलेज में हिंदी के सीनियर असिस्टन्ट प्रोफेसर हैं