अंजनी कुमार |
सरकार डरती है
एक सरकार डरती है
दूसरी सरकार से
दूसरी सरकार डरती है अपने आप से,
नेता डरता है मीडिया संस्थान से
मीडिया डरता है अपनी अवैध खदान से
न्यायपालिका डरती है आदेश से
और जज कॉरपोरेट घरानों से,
बैंक डरता है तबाही से
और कॉरपोरेट घराने डरते हैं मुनाफे की कमी से,
डर का एक पूरा वृत्त है, तंत्र है …
डर से बचाने के लिए फौजें मार्च कर रही हैं
रौंदते हुए आ रही हैं
जा रही हैं
कैथल से बीजापुर
सारंडा से अबूझमाड़
कुपवाड़ा से गुवाहाटी
गढ़चिरौली से विशाखापट्टनम
मुजफ्फरनगर से कुडानकुलम ….।
बोलो, बोलो, जल्दी बोलो!
हमारी मेहनत
हमारा रोजगार
हमारा घर
हमारी भूख
हमारा सुख
हमारा बच्चा
मां-बाप का जीवन
पत्नी के अरमान
और अब तो
इस कड़ाके की सर्दी में
आलू, गोभी और मटर भी
तुम्हारे कब्जे में है…
लोकतंत्र कहां से शुरू होता है संविधान
बोलो, बोलो, बोलो ….जल्दी बोलो!
बहुत लोग कह चुके हैं तुम्हें मरी हुई किताब।
अच्छी कविताएं हैं.
सम्यक एवम् सटीक रचना ।