उत्तर प्रदेश में विपक्ष क्या संगठित होकर चुनाव को चेहरे से हटा कर मुद्दों पर खड़ा कर पाएगा?


अभी हाल के कुछ राजनीतिक घटनाक्रम उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव पर अच्छा प्रभाव डालते हैं। पहला, केंद्र सरकार की कैबिनेट में फेरबदल अगले साल के उत्तर प्रदेश के चुनाव को ध्यान में रखते हुए जातिगत समीकरणों के आधार पर की गयी है और उसमें यह भी कोशिश की गयी है कि उत्तर प्रदेश से अधिक से अधिक नेताओं को मंत्रिमंडल में जगह दी जाए।

दूसरा, उत्तर प्रदेश के कुल 75  जिलों में से 67 जिलों में जिला पंचायत  के अध्यक्ष पद पर और ब्लॉक प्रमुखों के चुनाव में कुल 825 सीटों में 625 सीटों पर भाजपा की जीत हुई है, हालांकि इस दौरान बहुत जगहों से यह भी खबर आयी कि अलोकतांत्रिक तरीकों का इस्तेमाल किया गया। भाजपा की मंशा इस पंचायत चुनाव की बड़ी जीत का प्रचार करके विधानसभा चुनाव में फायदा लेना है। खैर, जैसे भी हो वास्तविकता यह है कि इन पदों पर भारतीय जनता पार्टी समर्थित लोग ही बैठे हैं।

ये दो कदम भाजपा के मास्टर स्ट्रोक हैं जिससे उत्तर प्रदेश के अगले साल के चुनाव की तैयारियों और रणनीतियों  में भाजपा की अच्छी बढ़त कहा जा सकता है।  

तीसरी खबर है कि चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर की राहुल गांधी से मुलाक़ात हुई। अगर प्रशांत किशोर कांग्रेस से जुडते हैं तो यह कांग्रेस के लिए बहुत सही फैसला होगा। यदि प्रशांत किशोर की बातों पर सही से अमल किया गया तो कांग्रेस पार्टी कि स्थिति में सुधार आ सकता है। कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर की सबसे पुरानी और सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है और एक स्वस्थ लोकतंत्र में विपक्ष का मजबूत होना उतना ही जरूरी है जितना एक मजबूत सत्ताधारी पार्टी का।

प्रशांत किशोर के जुड़ने का लक्ष्य कांग्रेस को 2022 के विधानसभा से कहीं अधिक 2024 के लोकसभा चुनाव में जिताना होगा अभी वर्तमान में कांग्रेस अधिकतर राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों की सहायक पार्टी की भूमिका में है। ऐसे में जरूरी है कि कांग्रेस ज्यादा सीटों की लालसा ना रखे, जैसा उसने बिहार में किया था और जिसका नतीजा नकारात्‍मक रहा। अगर कम सीटें मिलें तो गुंजाइश कर लेनी चाहिए। समाजवादी पार्टी (सपा) को लगभग 300 सीटों पर खुद लड़ना चाहिए और यदि 35-40 सीटें कांग्रेस को और 10-15 सीट राष्‍ट्रीय लोक दल को दे दी जाए तो एक मजबूत विपक्षी गठबंधन बन सकता है। सपा को आम आदमी पार्टी और आजाद समाज पार्टी को भी गठबंधन में लाने की कोशिश करनी चाहिए। अलग होकर लड़ने से इन पार्टियों को शायद ही किसी सीट पर जीत मिले, लेकिन ये वोट काटने का काम जरूर करेंगी जिसमें सपा का ही नुकसान है।  और भी छोटे–छोटे क्षेत्रीय दलों को गठबंधन में जोड़ा जाना फायदेमंद रहेगा।

सपा को यादव-मुस्लिम समीकरण से हट कर सोचना चाहिए क्योंकि बहुत सारी सीटों पर मुस्लिम वोट बंट जाएंगे। भाजपा की लंबे समय से चली आ रही रणनीति को समझते हुए उसके वोट बैंक में सेंध मारना चाहिए। पिछले सात साल से भाजपा ब्राह्मण-बनिया की पार्टी के टैग से छुटकारा पाने के प्रयास में रही है और इसके लिए वो अनुसूचित जातियों, पिछड़े और अतिपिछड़े का वोट जुटाने में कामयाब भी रही है। उत्तर प्रदेश में 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 119 सीटों पर अतिपिछड़ी जातियों, जैसे राजभर, कुशवाहा और मौर्य को टिकट दिये और लगभग 69 सीट पर गैर-जाटव दलितों को टिकट दिये। इन रणनीतियों को ध्यान में रखते हुए सपा के नेतृत्व में जो भी गठबंधन बने उसे अनुसूचित जातियों, पिछड़े और अतिपिछड़ा जातियों पर जरूर ध्यान देना चाहिए। इसके अलावा क्षेत्र उसके जातिगत राजनीतिक समीकरणों को भी ध्यान में रखते हुए फैसले लेना जरूरी है।

अगला चुनाव बहुत कड़ी प्रतिस्पर्धा होगा जिसमें जीत कम सीटों के फासले से होगी, हालांकि भाजपा की जीत की  संभावना प्रबल है लेकिन बिना अथक प्रयास किये यह भी आसान नहीं है। भाजपा में लंबे समय से व्यक्ति विशेष के नाम पर चुनाव लड़ा जा रहा है। ऐसे में उम्मीदवारों का व्यक्तित्व और अपने इलाके में किया गया काम मायने नहीं रखता। इस बात को जनता भलीभांति समझ रही है। ऐसे में देखने की बात यह होगी कि क्या सपा और उसके सहयोगी दल समाज के ऐसे लोगोंको अपना उम्मीदवार बनाएंगे जो अपने काम और चरित्र के कारण समाज में जाने जाते हैं। अगर वे ऐसा कर पाते हैं तो अपने आप को भाजपा से अलग दिखा पाएंगे और इससे उनको लाभ भी होगा।  

जनता में भाजपा सरकार की विफलता को लेकर आक्रोश है, लेकिन एक तथ्‍य यह भी है कि भारत की जनता बहुत जल्द चीजों को भूल जाती है। हो सकता है कि आने वाले कुछ महीनों में भाजपा कुछ लोकलुभावन योजनाएं लेकर आए तो मतदाता महामारी के कुप्रबंधन में केंद्र और राज्‍य की भाजपानीत सरकारों की भूमिका को भूलकर दोबारा उसे वोट दे आएं। इसीलिए स्वास्थ्य, किसानों की समस्‍या, बेरोजगारी और पेट्रोल-डीजल के मूल्य में बढ़ोतरी आने वाले चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा है, अगर विपक्ष इन मुद्दों के इर्द-गिर्द चुनाव को खड़ा कर सके। देखने की बात है कि सपा और सहयोगी दल इन मुद्दों को कैसे बरत पाते हैं।


(दिवेश रंजन राजनीतिक विश्लेषक हैं और बृजेश कुमार राय आइआइटी गुवाहाटी के पूर्व प्राध्यापक हैं।)


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