सियासत के धुंधलकों में डूबता जनपद: पहली किस्‍त


अभिषेक श्रीवास्‍तव / ग़ाज़ीपुर से लौटकर 


चीनी भाषा में ‘चिन-चू’ का मतलब होता है रणबांकुरों का देश। संभवत: पहली बार भारत के संदर्भ में अगर इस शब्‍द का कभी प्रयोग हुआ तो वह मशहूर चीनी यात्री ह्वेन सांग के यात्रा वृत्‍तान्‍त में मिलता है। ह्वेन सांग अपनी भारत यात्रा के दौरान उत्‍तर प्रदेश के छोटे से जि़ले ग़ाज़ीपुर आए थे। उस वक्‍त हालांकि ग़ाज़ीपुर इतना भी छोटा नहीं था। ग़ाज़ीपुर के जि़ला बनने से पहले बलिया, चौसा, सगड़ी, शाहाबाद, भीतरी, खानपुर, महाइच आदि परगने गाजीपुर में सम्मिलित थे। उन दिनों बलिया गाजीपुर का तहसील हुआ करता था। ह्वेन सांग से पहले मशहूर चीनी यात्री फाहियान भी ग़ाज़ीपुर होकर गए थे। फाहियान और ह्वेन सांग के बाद भी यहां आने वालों का सिलसिला नहीं थमा। यहां के गुलाबों के बारे में सुनकर गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर भी ग़ाज़ीपुर आकर रुके। 

इसी जि़ले में एक मशहूर पवारी बाबा हुआ करते थे जिनके पास शिष्‍य बनने के लिए कभी स्‍वामी विवेकानंद आए थे। विवेकानंद के पत्रों में इस घटना का जि़क्र है कि जिस रात उन्‍होंने पवारी बाबा के मठ में रुककर दीक्षा लेने का फैसला किया, उसी रात उनके सपने में रामकृष्‍ण परमहंस आए जो काफी दुखी दिख रहे थे। सपने से संकेत लेते हुए विवेकानंद यहां नहीं रुके, वे आगे बढ़ गए।
ये बातें कहने का आशय यह है कि ग़ा़ज़ीपुर में ऐसा कौन है जो नहीं आया, कौन है जिसके नाम के साथ इस जिले का नाम न जुड़ा हो, लेकिन यह जिला एक शाश्‍वत सराय बना रहा। कभी किसी ने यहां ठहर कर इसके बारे में सोचने की ज़हमत नहीं उठायी। रणबांकुरों की इस धरती ने हालांकि कभी इसका अफ़सोस नहीं पाला। अंग्रेज़ों के खिलाफ़ सिपाहियों की पहली बग़ावत (मंगल पांडे) से लेकर 1942 की अगस्‍त क्रांति (जिसके बाद बलिया आज़ाद हुआ था) तक और वीर अब्‍दुल हमीद की शहादत से लेकर 1974 में ज़मींदारों के खिलाफ भूमिहीनों के उभार तक यह धरती लगातार खून बहाकर अपना कर्ज चुकाती रही। यह परंपरा आज भी कायम है। 

अफ़सोस सिर्फ इस बात का है जिन खेत-खलिहानों ने अपने लड़कों को निस्‍वार्थ भाव से समाज की सेवा के लिए बलिदान किया, आज वे गंगा में डूब रहे हैं और मौजूदा सियासत स्‍थानीय शहीदों की चिंताओं पर मेले लगाकर अपना राजधर्म निबाह रही है। इसी डूबते जिले की रस्‍मी यात्रा करने वालों की फेहरिस्‍त में 18 अगस्‍त 2014 को ग़ाज़ीपुर के सांसद मनोज सिन्‍हा का नाम नया-नया जुड़ा है।
उस दिन सवेरे से ही मुहम्‍मदाबाद के शहीद स्‍मारक तक आने वाली सड़कों पर चूना डाला जाने लगा था, शामियाना ताना जाने लगा था और भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता अपने मुख्‍य अतिथि की अगवानी में मोटरसाइकिलों पर हुड़दंग करते इकट्ठा होने लगे थे। दस बजते-बजते चौराहे पर जाम लग गया। ख़बर आई कि रेल राज्‍यमंत्री मनोज सिन्‍हा श्रद्धांजलि देने पहुंचने वाले हैं। 

कुछ और लोग थे जो भीड़ के साथ उधर जाने के बजाय उधर से वापस आ रहे थे। जैसे-जैसे चौराहे पर भीड़ जुटी, एक छोटा सा समूह चौराहे से दूर एक जगह इकट्ठा हुआ। किसी ने दूसरे से पूछा, ”डाक साब, आप वहां हो आए?” डाक साब ने जवाब दिया, ”हां भइया, हम तो सकराहे फूल-पत्‍ती चढ़ाकर निकल लिए। कौनो बैंड बजाने थोड़े वहां रुकना है।” तब तक किसी ने जानकारी दी कि सांसद महोदय इस बार किसी भूमिहार के घर नहीं जाएंगे। उनका कार्यक्रम एक यादव के घर जाने का तय है। 

बात-बात में इंटर कॉलेज के एक रिटायर्ड प्रिंसिपल साहब बोले, ”बताइए! जिन्‍हें शहीदों की रत्‍ती भर कद्र नहीं है वे शहादत को श्रद्धांजलि देने आए हैं। वतन पर मिटने वालों का यही बाकी निशां होगा…।” बहरहाल, मनोज सिन्‍हा आए और चले भी गए। दिन के अंत में शहीद स्‍मारक पर सिर्फ चूना और गेंदे के फूल बिखरे हुए थे जबकि शेरपुर गांव के लोग किसी भी वक्‍त घटने वाली अप्रत्‍याशित घटना को लेकर सहमे हुए थे क्‍योंकि गंगा में पानी लगातार बढ़ता जा रहा था। 

(जारी) 
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