भूटान के चुनाव में भारत का बेशर्म हस्तक्षेप


आनंद स्‍वरूप वर्मा 
भूटान में संपन्न 13 जुलाई के दूसरे आम चुनाव ने भारत सरकार की विदेश नीति के दिवालियेपन को एक बार फिर उजागर किया है। इस चुनाव में प्रमुख विपक्षी पार्टी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) ने सत्तारूढ़ ड्रुक फेनसुम सोंगपा’ (डीपीटी) को हराकर सत्ता पर कब्जा कर लिया है। पीडीपी को 35 और डीपीटी को 12 वोट मिले। 31 मई को हुए प्राथमिक चुनाव में डीपीटी को 33 और पीडीपी को 12 सीटों पर सफलता मिली थी। प्राथमिक चुनाव में जो अन्य दो पार्टियां शामिल थीं। उनमें क्रमशः ड्रुक नामदु्रक सोंगपा (डीएनपी) और ड्रुक चिरवांग सोंगपा (डीसीपी) को क्रमशः दो और शून्य सीटें मिली। भूटान के संविधान के अनुसार प्राथमिक चुनाव में सबसे अधिक वोट पाने वाली दो पार्टियों के बीच अंतिम तौर पर मतदान कराया जाता है। आश्चर्य की बात है कि 31 मई से 13 जुलाई के बीच यानी महज डेढ़ महीने के अंदर ऐसा क्या हो गया जिससे डीपीटी अपना जनाधार खो बैठी और पीडीपी को कामयाबी मिल गयी।

निवर्तमान प्रधानमंत्री जिग्‍मे थिनले 
दरअसल जुलाई के प्रथम सप्ताह में भारत सरकार ने किरोसिन तेल और कुकिंग गैस पर भूटान को दी जाने वाली सब्सिडी पर रोक लगा दी। मजे की बात यह है कि यह रोक इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन ने अपने खातों के हिसाब से नहीं बल्कि भारत सरकार के विदेश मंत्रालय के निर्देश पर लगायी। डीपीटी के नेता और पूर्व प्रधानमंत्री जिग्मे वाई थिनले से पिछले कुछ समय से भारत सरकार नाराज चल रही थी। भारत सरकार का मानना था कि प्रधानमंत्री थिनले मनमाने ढंग से विदेश नीति का संचालन कर रहे हैं। थिनले के समर्थकों का मानना था कि क्या किसी संप्रभु राष्ट्र का यह सार्वभौम अधिकार इसलिए छिन जाता है क्योंकि वह एक बड़े देश का पड़ोसी है और उसकी अर्थव्यवस्था पड़ोसी देश की आर्थिक सहायता पर निर्भर है? ध्यान देने की बात है कि 1949 की भारत-भूटान मैत्री संधिमें इस बात का प्रावधान था कि भूटान अपनी विदेश नीति भारत की सलाह पर संचालित करेगा। लेकिन 2007 में संधि के नवीकरण के बाद इस प्रावधान को हटा दिया गया। ऐसी स्थिति में भूटान इस बात के लिए स्वतंत्र है कि वह अपनी विदेश नीति कैसे संचालित करे। बेशक, लिखित और अलिखित रूप में ऐसी सारी व्यवस्थाएं हैं जिनसे भूटान में कोई भी सत्ता में क्यों न हो उसे इस बात का ध्यान रखना ही होगा कि उसकी आंतरिक अथवा विदेश नीति से भारत की सुरक्षा को कोई खतरा न हो। जाहिर है कि प्रधानमंत्री थिनले भी इसे जानते थे और उन्होंने अपने कार्यकाल में ऐसा कुछ भी नहीं किया जिससे भारत के सुरक्षा सरोकारों को कोई दिक्कत पैदा हो।

फिर भारत सरकार की नाराजगी का आधार क्या है? दरअसल पिछले वर्ष ब्राजील के रियो द जेनेरो में एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री थिनले ने चीन के तत्कालीन प्रधानमंत्री से एक अनौपचारिक भेंट कर ली थी। यद्यपि भारत के अलावा भूटान का दूसरा पड़ोसी चीन ही है तो भी चीनी और भूटानी प्रधानमंत्रियों के बीच यह पहली मुलाकात थी। इस मुलाकात के बाद भारत के रुख में जबर्दस्त तब्दीली आयी और विदेश मंत्रालय के अधिकारी ऑफ दि रिकॉर्ड यह कहने लगे कि भूटान अब नियंत्रण से बाहर हो रहा है। भूटान की अब तक की सभी 10 पंचवर्षीय योजनाएं भारत की सहायता पर ही निर्भर रही हैं। अनेक जल विद्युत परियोजनाएं भारत की सहायता से चल रही हैं हालांकि उनसे पैदा बिजली का लाभ भारत को ही मिल रहा है। ऐसी स्थिति में भारत यह बिल्कुल सहन नहीं कर पाता कि चीन के साथ भूटान के किसी भी तरह के संबंध हों। ब्राजील में चीनी प्रधानमंत्री से बातचीत ही नहीं बल्कि भूटान द्वारा चीन से ली गयी 15 बसों से भी भारत को तकलीफ हुई।

भूटान में चीन से खरीदी गई इन बसों से है भारत को तकलीफ़ 
मामला केवल चीन से संबंध तक सीमित नहीं है। भारत यह नहीं चाहता कि भूटान दुनिया के विभिन्न देशों के साथ अपने संबंध स्थापित करे। 2008 तक भूटान के 22 देशों के साथ कूटनीतिक संबंध थे जो थिनले के प्रधानमंत्रित्व काल में बढ़कर 53 तक पहुंच गये। चीन के साथ अब तक भूटान के राजनयिक संबंध नहीं हैं लेकिन चूंकि अब भूटान-चीन सीमा विवाद काफी हद तक हल हो चुका है इसलिए भारत इस आशंका से घबराया हुआ हैकि चीन के साथ उसके संबंध स्थापित हो जाएंगे। उसे पता है कि भारत (सिक्किम)-भूटान-चीन (तिब्बत) के संधिस्थल पर स्थित चुंबी घाटी तक जिस दिन चीन अपनी योजना के मुताबिक रेल लाइन बिछा देगा भूटान की वह मजबूरी समाप्त हो जाएगी जो तीन तरफ से भारत से घिरे होने की वजह से पैदा हुई है। चुंबी घाटी में रेल लाइन का आना अपरिहार्य है क्योंकि चीन इस परियोजना पर जोर-शोर से काम कर रहा है। ऐसी स्थिति में भारत को इस तथ्य को स्वीकार करते हुए आगे की रणनीति तैयार करनी चाहिए थी लेकिन यह उसकी कूटनीति का दिवालियापन ही है कि जिस देश पर उसने अब तक अरबों-खरबों रुपए खर्च किए उसे ऐसी स्थिति में जाने को मजबूर कर रहा है जो दुश्मन नहीं तो मित्र भी न कहा जा सके।

नए प्रधानमंत्री सेरिंग टोबगे 
तेल और गैस पर सब्सिडी बंद करने के साथ ही भारत ने एक्साइज ड्यूटी रिफंड और चुखा जल विद्युत परियोजना से पैदा बिजली की दर में दी जा रही सब्सिडी को भी बंद करने का एलान किया। भारत की दलील यह है कि इसने आर्थिक कारणों से अपने देश के अंदर भी अनेक क्षेत्रों में सब्सिडी पर रोक लगायी है। भूटान की जनता इतनी मासूम नहीं है कि वह इस तर्क से सहमत हो। उसे पता है कि एक अरब 20 लाख से भी ज्यादा की आबादी वाले भारत में सब्सिडी पर रोक लगाने से जो बचत होगी उसमें और 6-7 लाख की आबादी वाले भूटान को दी जाने वाली सब्सिडी से जो बचत होगी उसमें कोई तुलना ही नहीं है। भारत के लिए यह ऊंट के मुंह में जीरा की तरह है। जाहिर है कि भारत के इस कदम को लोगों ने बांह मरोड़ने की कार्रवाईमाना है और ठीक चुनाव से पहले यह कदम उठाकर भारत ने भूटानी जनता को संदेश दिया कि अगर थिनले की पार्टी यानी डीपीटी दुबारा सत्ता में आयी तो और भी मुसीबतें झेलनी पड़ सकती हैं। भारत सरकार के विदेश मंत्रालय ने भूटानी जनता के असंतोष के जवाब में यह भी कहा था कि नव निर्वाचित सरकार के साथ बातचीत करके इस समस्या का समाधान ढूंढ लिया जाएगा। इस कथन में भी सत्ता परिवर्तन के संकेत थे जिसे भूटान की जनता ने अच्छी तरह समझा।

भारत के इस कदम पर जो भी प्रतिक्रिया हुई वह भारत-भूटान संबंधों की दृष्टि से किसी भी हालत में सकारात्मक नहीं कही जा सकती। इसके दूरगामी परिणाम हमारे शासकों को देर-सबेर भुगतने ही पड़ेंगे। भूटान के एक अत्यंत लोकप्रिय ब्लॉगर वांग्चा सांगे ने अपने ब्लॉग में लिखा कि ‘’भूटान के राष्ट्रीय हितों को भारतीय धुन पर हमेशा नाचते रहने की राजनीति से ऊपर उठना होगा। हम केवल भारत के अच्छे पड़ोसी ही नहीं बल्कि अच्छे और विश्वसनीय मित्र भी हैं। लेकिन इसके साथ यह भी सच है कि हम एक संप्रभु राष्ट्र हैं। इसलिए भूटान का राष्ट्रीय हित महज भारत को खुश रखने में नहीं होना चाहिए। हमें खुद को भी खुश रखना होगा।’’ इसी ब्लॉग में उन्होंने आगे चलकर तीखे शब्दों में टिप्पणी करते हुए लिखा है कि ‘’आखिर क्यों भारत का मीडिया और भारत के राजनीतिज्ञ चीन के साथ ऐसे संबंध स्थापित करने के लिए भी भूटान को दंडित करना चाहते हैं जिनसे उनका कोई नुकसान नहीं होने जा रहा है? मैंने भारत के एक नौकरशाह को यह कहते हुए सुना कि भूटानी नेतृत्व ने बेईमानीकी है। इसका मतलब क्या हुआ? कौन सा राष्ट्रीय नेता और कौन सी राष्ट्रीय सरकार अपनी आत्मा किसी दूसरे देश के हाथ गिरवी रख देती है? हम कोई पेड सेक्स वर्कर नहीं हैं जो अपने मालिकों की इच्छा के मुताबिक आंखें मटकाएं और अपने नितंबों को हिलाएं।’’ 

वांग्चा सांगे ने अपने ब्लॉग के माध्यम से भूटानी जनता की भावनाओं को व्यक्त किया है। इस चुनाव के बाद फोंत्सलिंग (भूटान) के अपने एक परिचित से जब मैंने बातचीत की तो उसने बताया कि डीपीटी का समर्थक होने के बावजूद उसने 13 जुलाई के चुनाव में पीडीपी को वोट दिया क्योंकि उसे विश्वास था कि अगर डीपीटी दुबारा सत्ता में आयी तो भारत सरकार सब्सिडी की कटौती को वापस नहीं लेगी। उसने बताया कि इतना ही नहीं इस आशय के संकेत भी स्पष्ट मिले थे कि न केवल सब्सिडी में बल्कि आगामी पंचवर्षीय योजनाओं के मामले में भी भारत अपना हाथ खींच लेगा।

दिवालिया कूटनीति: सलमान खुर्शीद 
1990-91 में दक्षिणी भूटान से एक लाख से भी अधिक लोगों को जनतंत्र की मांग करने पर देश से बाहर निष्कासित कर दिया गया था और इस काम में भूटान नरेश को भारत सरकार का भरपूर समर्थन प्राप्त था। भूटान की जनता और खास तौर पर दक्षिणी भूटान में जो ल्होत्सोंपा (नेपाली मूल के भूटानी नागरिक) बचे रह गए वे इस दर्द को धीरे-धीरे भूलने में लगे थे कि तभी सब्सिडी कटौती और थिनले विरोधी राजनीति का हादसा सामने आ गया। पीडीपी की जीत से भले ही भारत को फौरी तौर पर खुशी हो और भूटानी जनता भी अपनी आर्थिक स्थिति को बदहाल होने से बचाने की खुशी मनाए लेकिन इसके दूरगामी नतीजे सुखद नहीं होंगे। एक बार फिर भारत के विदेश नीति निर्माताओं को सोचना होगा कि पड़ोसी देशों के प्रति जिस मानसिकता से वे काम करते हैं उसे बदलने की जरूरत है।
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